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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भी समान प्रेम करके अपने हिन्दू धर्मको अधिक उदार और व्यापक बना देता हूँ, वैसे ही एन्ड्र्यूजने भी अन्य धर्मोंसे ईसाई धर्मके समान ही प्रेम करके ईसाई धर्मको अधिक उदार और व्यापक बना दिया है। मगर, आपके मनमें अगर यह शंका हो कि केवल एक ही धर्म सच्चा हो सकता है और दूसरे सब झूठे ही होंगे, तो आपको मेरे बतलाये बन्धुत्वके आदर्शका त्याग करना ही पड़ेगा। तब तो हमें निरन्तर एक-दूसरेको छाँटते ही जाना पड़ेगा, हमारी बन्धुताकी नींव पारस्परिक बहिष्कारपर रखी होगी। सबसे अधिक जोर मैं सत्यवादितापर देता हूँ। अगर हमारे मनमें दूसरे धर्मोंके लिए भी वह प्रेम नहीं है जो अपने धर्मके लिए है तो भला इसी में है कि हम यह संघ तोड़ दें। यह ऊपरी सहिष्णुता हम नहीं चाहते। सहिष्णुताके मेरे सिद्धान्तमें पाप सहन करनेकी कोई गुंजाइश नहीं होती, गोकि पापी मनवालेको सहन किया जा सकता है। इसका यह अर्थ नहीं कि हर बुरे मनवालेको आप अपने पास बुलाया करें या झूठे धर्मको सहन करें। सच्चा धर्म मैं उसको कहता हूँ जिसकी सब शक्तियोंका कुल प्रभाव उसके अनुयायियोंके लिए हितकर हो, और झूठा धर्म वह है जिसमें अधिकांश झूठ ही झूठ भरा पड़ा हो। इसलिए अगर आपको यह लगे कि कुल मिलाकर हिन्दू धर्मसे हिन्दूओंका और संसारका अहित ही हुआ है तो आपको हिन्दू धर्मको झूठा धर्म मानकर जरूर छोड़ना ही पड़ेगा।

गांधीजीने इस बातपर जोर दिया कि संघका कोई भी सदस्य गुप्त भावसे भी यह इच्छा न करे कि कोई दूसरा व्यक्ति अपने धर्मको छोड़कर हमारे धर्ममें मिल जाये। इसको लेकर धर्म-परिवर्तनके बारेमें सामान्य चर्चा शुरू हो गई। गांधीजीने अपनी स्थिति पहलेसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा :

मैं न सिर्फ दूसरेका धर्म-परिवर्तन करनेकी कोशिश नहीं करूँगा, बल्कि मैं मनसे भी यह नहीं चाहूँगा कि वह अपना धर्म छोड़कर मेरा धर्म स्वीकार करे। परमात्मासे मेरी यही प्रार्थना हमेशा होगी कि इमाम साहब अच्छे मुसलमान बनें या जो कुछ भी वे अच्छेसे अच्छा बन सकते हैं, बनें। अहिंसाका सन्देश देनेवाला हिन्दू धर्म मेरी दृष्टिमें सबसे सुन्दर, सबसे बड़ा, सबसे महिमामय धर्म है, जैसे कि मेरी दृष्टिमें मेरी धर्मपत्नी सबसे अधिक सुन्दर रमणी है; मगर दूसरोंको भी अपने धर्मके बारेमें ऐसा ही गर्व हो सकता है। सच्चे और वास्तविक धर्म-परिवर्तनके उदाहरण मी मिलने सम्भव हैं। अगर कुछ लोग अपने आन्तरिक सन्तोष और विकासके लिए धर्म-परिवर्तन करना चाहें, तो वे भले ही करें। आदिम जातियोंतक अपने धर्मका सन्देश पहुँचानेका शौक मुझे नहीं है। मेरी बुद्धि इसकी गवाही नहीं देती। कहा जाता है कि अत्यन्त नम्रतासे ये काम करो। खैर, मैंने अति नम्रतामें भी अहंकारको छिपा पाया है। मैं जानता हूँ कि अगर मैं सम्पूर्ण हूँ, सर्वथा शुद्ध हूँ, तो दूसरोंके पास तक मेरे विचार पहुँचेंगे ही। मेरी सारी शक्ति उसी ध्येयकी ओर जानेमें खर्च हो जाती है जो मैंने अपने लिए निश्चित कर लिया है। पर्वतीय प्रदेशोंमें रहनेवाले असमियों और आदिम जातियोंके लोगोंके पास मैं जाऊँ भी तो क्या लेकर? मेरे पास अपनी नग्नताके अतिरिक्त और है ही क्या? अपनी प्रार्थनामें शामिल होनेको उनसे कहनेके