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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जैसा ही दृढ़ है, बावजूद इसके कि मैंने हालमें एक या दो अहानिकर और जानी मानी दस्तकी दवाएँ और कुनैन ली हैं। इस देशमें फार्मेसियोंकी संख्या बढ़ते देखनेकी मेरी कोई इच्छा नहीं है। बल्कि मैं तो चाहूँगा कि लोग दवाओंकी दासता से मुक्त हो जायें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १२-१-१९२८

३४८. मद्रासकी खादी-प्रदर्शनी

कांग्रेस अधिवेशन के दौरान श्री पोलक मद्रासमें थे, इसलिए मैंने उन्हें खादी-प्रदर्शनी देखने और देखकर उसके बारेमें अपने विचार व्यक्त करनेके लिए निमन्त्रित किया था। अब उन्होंने मुझे एक पत्र भेजा है जिसमें से मैं निम्नलिखित उद्धरण यहाँ देता हूँ :[१]

हालाँकि यह आलोचना सुविचारित नहीं है, तथापि वह भावी प्रदर्शनियोंके संगठनकर्त्ताओंके लिए उपयोगी होगी। मैं इस रायसे सहमत नहीं हूँ कि शिक्षित भारतीय खादीको तबतक नहीं अपनायेंगे जबतक कि मूल्य, किस्म, मजबूती आदिके लिहाज से उन्हें ऐसी खादी नहीं मिलेगी जो मिलके बने कपड़ेका मुकाबला न कर सके। यह सच है कि वे अपनी कलात्मक रुचिको सन्तुष्ट करनेके लिए यह निश्चित स्तर तो चाहते हैं, लेकिन वे खुशीके साथ अतिरिक्त मूल्य दे रहे हैं और किस्मके लिहाज से मिलके कपड़े के साथ खादीकी बराबरीपर उनका निश्चय ही आग्रह नहीं है।

शिक्षित और पैसेवाले वर्गके लोगोंके खादी खरीदने के पीछे एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे जानते हैं कि खादी देशके गरीब से गरीब आदमीको सहारा देती है जो अन्यथा इस सहारेसे वंचित हो जायेंगे। लेकिन निश्चय ही यह कोई कारण नहीं है कि किस्मको सुधारनेकी कोशिशमें खादी उत्पादक ढील डालें। सच तो यह है कि इस दिशा में हुई प्रगति बहुत ही उत्साहवर्धक है। कार्यकर्त्ताओंको तबतक सन्तोष नहीं होगा जबतक खादी वैसी ही अच्छी नहीं बनने लगती जैसी कि उस समय बनती थी जब मशीनका बना कपड़ा होता ही नहीं था, और जिस खादीकी बराबरी आजतक कोई मशीन नहीं कर सकी है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १२-१-१९२८
  1. यहाँ नहीं दिया गया है। इसमें एच॰ एस॰ एल॰ पोलकने गन्दी जगह और बुरी व्यवस्थाके लिए प्रदर्शनीकी आलोचना की थी।