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गीता पर प्रवचन

सबके लिए रामबाण औषधि बताई गई है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि बिना प्रयत्न किये किसी व्यक्तिके सभी विकार धुल जायेंगे। यदि कोई मनुष्य इन्द्रियों के वशीभूत होकर अनिच्छापूर्वक विषयोंकी ओर खिंचा चला जाता है तो ऐसी स्थिति में जब वह अथक प्रयत्न करते हुए और हृदयसे पश्चाताप करते हुए भगवानकी शरण लेता है तो भगवान उसे निश्चय ही विकारोंसे मुक्त कर देंगे।

इससे एक दूसरा विचार भी मनमें उठता है, किन्तु उसपर हम कल विचार करेंगे।

वह विचार यह है कि इस अध्यायमें पापोंके प्रायश्चित्तका उल्लेख भी किया गया है। और पापका प्रायश्चित्त उपवास नहीं बल्कि भक्ति है, प्रपत्ति है। उपवासकी उपयोगिताको मैं भली-भाँति समझता हूँ, किन्तु उसकी भी एक सीमा है। पापका प्रायश्चित्त उपवास तो हो ही नहीं सकता कदाचित् यह सम्भव है कि उपवास उस पापको ही छिपा दे। पापीका अर्थ है पाप करनेवाला किन्तु पापयोनिका अर्थ है पापी योनिसे जन्मा हुआ अर्थात् जो महापापी हो। इसके गूढ़ार्थ में क्या कल्पना होगी यह हम नहीं जानते; किन्तु महापापीके लिए भी आशाकी एक किरण है, यदि वह भक्ति करे। और भक्तिका अर्थ है अपनेको भगवानमें लीन कर देना, अपने अहंको भूलकर शून्य हो जाना। पापका प्रायश्चित्त उपवास नहीं बल्कि भक्ति है। हाँ; अनेक बार भक्तिभाव से ओतप्रोत हो जानेके लिए उपवास कर लेनेकी आवश्यकता जान पड़ती है, किन्तु इसका माप सभी अपनी-अपनी मनःस्थिति के अनुसार निकाल सकते हैं। शून्य हो जाने में ही परिपूर्ण भक्ति निहित है और यदि ऐसी भक्ति बन पड़े तो हमसे चाहे जितने पाप हुए हों, वे हमारे मार्ग में बाधा नहीं डाल सकते। इस अध्याय में जिस सुदुराचारीकी बात कही गई है वह कोई अन्य नहीं बल्कि हम स्वयं ही हैं। अनेक प्रकारके मानसिक पाप करनेवाले तथा ऐसे पाप करनेके बावजूद, हम भलेमानस बनकर इस संसारमें विचरण करते हैं। भला, ऐसा पापी हममें से कौन नहीं है? और यह अध्याय ऐसे लोगोंके ही लिए है।

ग्यारहवें अध्यायमें भगवानके अनेकानेक दर्शन करवाकर इस भक्तिके लिए मनुष्यको तैयार किया गया है और इसके बाद बारहवें अध्यायमें भक्तिका रहस्य बतलाया गया है और सच्चे भक्तका वर्णन किया गया है। यह अध्याय तो इतना छोटा है कि इसे कोई भी व्यक्ति सहज ही कंठस्थ कर सकता है।

चौदहवें अध्यायमें त्रिगुणोंका वर्णन किया गया है। पन्द्रहवें में पुरुषोत्तमका वर्णन है। ३० वर्षसे अधिक हुए मैंने ड्रमण्डकी[१] पुस्तक पढ़ी थी जिसमें अनेक दृष्टान्त देकर यह सिद्ध किया गया है कि जड़ जगतके नियम अव्यात्म जगतपर भी लागू होते हैं। यह इस त्रिगुणात्मक सृष्टिमें सिद्ध होता जान पड़ता है। गुण तीन ही नहीं बल्कि अनेक हैं। यह तो उन अनेक गुणोंको मोटे तौरपर तीन भागों में बाँट दिया गया है। जो इन तीनोंको तर जाता है वह पुरुषोत्तम हो जाता है। इस जगतमें

  1. डा॰ हेनरी ड्रमण्ड, द नेचुरल लॉ इन द स्पिरिचुअल वर्ल्ड तथा द ग्रेटेस्ट थिंग इन द वर्ल्ड के लेखक।