पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 35.pdf/४८३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४५५
राष्ट्रीय कांग्रेस

 

हाथी और चींटी

मेरी नम्र सम्मतिमें मद्रास-कांग्रेसकी स्वागत समितिने उस नाम मात्रकी अखिल भारतीय प्रदर्शनीको अपने तत्वावधान में आयोजित करनेकी अनुमति देकर भारी भूल की। उस प्रदर्शनीमें अगर कोई खूबी रही भी हो तो सरकारी छत्रछाया और स्वीकृतिने उसे नष्ट ही किया, रौनक नहीं बख्शी। कांग्रेस बहुत पहले से ही सरकारी कृपा या कोपकी मुखापेक्षी नहीं रही है। अगर और पहलेसे नहीं तो कमसे कम १९१८ से कांग्रेस जिन आदर्शोंके लिए काम कर रही है, इस प्रदर्शनी में प्रायः वे सबके सब भुला दिये गये थे। अखिल भारतीय प्रदर्शनी में था क्या? मण्डपोंमें से कई एक तो विलायती कम्पनियोंको अपना माल प्रदर्शित करनेके लिए दिये गये थे। एक मण्डपमें मशीनें और मशीनी सामान था, कुछ मण्डपोंमें विदेशी सूतके कपड़े चमक रहे थे, तो कुछमें विदेशी घड़ियाँ सजी थीं। वहाँ प्रदर्शनी में स्वदेशी सामान तो बहुत कम था, मगर विदेशी और अंग्रेजी मालकी भरमार थी। और वह भी कहाँ? उस कांग्रेसकी छत्र-छायामें जो स्वदेशीका धर्म सिखलाती है और जिसके कार्यक्रम में अंग्रेजी मालका बहिष्कार भी शामिल है। उसमें शायद ही कोई चीज रही हो जिसमें गाँववालोंका मन लगे या उनसे वे कुछ सीख सकें। इस प्रदर्शनी में भारतवर्षकी ग्राम सभ्यताकी नहीं परन्तु पश्चिमकी लुटेरी नागरिक सभ्यताकी झलक थी। इसका आयोजन कांग्रेसकी भावनाको झुठलाना था; यह प्रदर्शनी पिछले छः सालकी खादी और स्वदेशी प्रदर्शनियोंके तो बिलकुल विपरीत थी। कपड़ेका बाजार तो मानो खादीका मखौल उड़ानेके लिए ही बनाया गया था, हालाँकि कांग्रेस अब भी सूत- मताधिकारको मानती है और अखिल भारतीय चरखा संघके कार्यका समर्थन करती है। सभी विज्ञप्तियाँ अंग्रेजीमें छपी थीं, मानो उसे सिर्फ अंग्रेज ही देखने आनेवाले थे न। खादीका महत्त्व घटानेवाली एक विज्ञप्ति नीचे दी जाती है :

गरीबोंको खिलाओ और समर्थोंसे काम कराओ,
चरखसे भरनीका सूत कातो और तानेका सूत मिलोंसे लो,
दोनोंके मेलमें ही उद्धार है।

अगर इस विज्ञापनके लेखककी नीयत ही सोच-समझकर हानि पहुँचानेकी न हो, तो उसने खादीके विकासका अपना अज्ञान ही प्रदर्शित किया है। इन पृष्ठोंमें हाथके कते सूतका बाना और मिलके सूतका ताना बनानेकी मिथ्या धारणाकी असलियत कितनी ही बार दिखलाई जा चुकी है। यहाँ इतना ही कहना काफी होगा कि अगर चरखेके सूतका केवल बाना ही भरनेकी नीति कुछ दिनतक चलती तो चरखा कभीका अपनी कुदरती मौत मर गया होता। अनुभवसे पता चलता है कि यह जोड़ी हर तरहसे बुरी ही है। अब यह दूसरी विज्ञप्ति, अगर उससे बढ़-चढ़कर नहीं तो कम बुरी भी नहीं है :

जुलाहेसे ताना भी हाथकते सूतका बनवाना
मानो उसे एक छुरी लेकर जहाज-भर लोगोंसे लड़नेको भेजना है।
उसके कामका अच्छे-अच्छा तरीका छुड़वाना तो मानो उसका अंगूठा
ही काट डालना है।