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राष्ट्रीय कांग्रेस

नहीं होगा। हिन्दुस्तानमें इस्लाम हिन्दू धर्मको इससे अच्छा कोई उपहार नहीं दे सकता कि वह गौ-वध बन्द करके स्वैच्छिक आत्मत्याग करे। और मुझे इस्लामकी इतनी जानकारी तो है कि मैं यह दावेके साथ कह सकता हूँ कि इस्लाम गौ-वधको अनिवार्य नहीं बताता। हाँ, मगर अपने अनुयायियोंको इसके लिए लाचार जरूर करता है कि वे अपने पड़ोसियोंकी भावनाओंका जहाँतक सम्भव हो सम्मान करें। मेरे लिए मस्जिदों के आगे बाजे बजानेका सवाल गो-वधके बराबर महत्त्वपूर्ण नहीं है। मगर अब इसका भी महत्त्व इतना बढ़ गया है कि उसकी उपेक्षा करना बेवकूफी होगी। यह तो मुसलमानोंके ही कहने की बात है कि उनकी भावनाओंकी रक्षाके लिए क्या करना चाहिए। और अगर मस्जिदोंके आगे बाजे बजाना कतई बन्द करनेसे ही मुसलमानोंकी भावनाओं की रक्षा हो सके तो बिना एक क्षण भी खोये ऐसा करना हिन्दुओंका कर्त्तव्य है। अगर हमें हार्दिक एकता चाहिए तो हममें से हर एकको यथेष्ट त्याग करने को तैयार रहना चाहिए।

अगर यह चिरवांछित परिणति होनी है, एकता स्थापित होनी है, तो डाक्टर अन्सारीको शान्ति जत्थे भेजने होंगे जो इस सन्देशका प्रचार करें और जनतासे इसे स्वीकार करायें। क्या हमारे पास इस सन्देशका प्रचार करनेके लिए यथेष्ट शक्ति, काफी ईमानदार, मेहनती और तत्पर प्रचारक हैं? आइए, हम आशा करें कि हैं।

गैर-जिम्मेदारी

मैं विषय-निर्धारिणी समितिकी एक भी बैठकमें शामिल तो नहीं हो सका, मगर यह मैंने जरूर देखा है कि गैर-जिम्मेदाराना बातें और काम वहाँ आम बातें थीं। अनुशासनहीनता भी दिखाई पड़ती है। ऐसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव भी समितिके आगे बिना किसी तैयारीके सहसा पेश कर दिये गये जिनके परिणाम बड़े व्यापक और गहरे निकलने थे और उनको भी इस महती समितिने बिना अधिक चर्चा या बहसके सरसरी तौरपर स्वीकार कर लिया। इंडिपेंडेन्स (स्वतन्त्रता) वाला प्रस्ताव[१] पिछले साल नामंजूर हुआ था, मगर इस साल वह स्वीकार कर लिया गया और उसका विरोध भी प्रायः नहीं के बराबर हुआ। मैं जानता हूँ कि उसकी शब्दावलीमें कोई दोष नहीं, मगर मेरी नम्र सम्मतिमें वह उतावली में सोचा और बिना विचारे स्वीकार किया गया है। मैं इस प्रस्तावपर शीघ्र ही किसी अंकमें एक स्वतन्त्र लेख द्वारा अपने विचार रखनेकी बात सोच रहा हूँ।"[२]

ब्रिटिश या अंग्रेजी मालके बहिष्कारका प्रस्ताव भी ऐसा ही सरसरी तौरपर स्वीकार किया गया था। कांग्रेस साल-दर-साल ऐसे प्रस्ताव स्वीकार करके अपने अन्दर कुण्ठा पैदा करती है जिनके बारेमें वह जानती है कि उन्हें प्रभावी नहीं बना सकती। ऐसे प्रस्ताव स्वीकार करनेसे हमारी नामर्दी ही जाहिर होती है, आलोचक हमपर हँसते हैं और हमारे विरोधी हमें नीची नजर से देखने लगते हैं।

  1. देखिए "भेंट : इंडियन डेली मेलके प्रतिनिधिसे," ३०-१२-१९२७ की पाद-टिप्पणी।
  2. देखिए "स्वतन्त्रता बनाम स्वराज्य," १२-१-१९२८।