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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसके बाद हमारे प्रतिनिधिने हकीम अजमलखाँको मृत्युकी[१] चर्चा की, और श्री गांधीने निम्नलिखित वक्तव्य दिया :

इस अवसरपर यह एक अत्यन्त महान और दुःखद क्षति है। हकीम अजमल खाँ भारतके अत्यन्त सच्चे सेवकोंमें से थे, और हिन्दू-मुस्लिम एकतांके लिए वह अत्यन्त बहुमूल्य व्यक्ति थे। मैं यही आशा कर सकता हूँ कि जो चीज हम उनके जीवित रहते नहीं सीख सके वह चीज हम उनकी मृत्युके बाद और उनकी मृत्युसे सीख सकेंगे । ऐसे विवरण छपे हैं कि मृतककी स्मृति में सम्मान व्यक्त करने के लिए हिन्दुओंने भी उतनी ही बड़ी संख्या में भाग लिया जितनी संख्यामें मुसलमानोंने, यदि वे सच हैं तो यह एक बहुत ही स्वस्थ चिह्न है और मैं आशा करता हूँ कि उनकी मृत्युसे दिल्लीमें भ्रातृत्व और मैत्रीकी जो भावना उत्पन्न हुई है वह जारी रहेगी और स्थायी बनेगी तथा सारे देशमें फैल जायेगी ।

मेरे लिए हकीमजीकी मृत्यु एक व्यक्तिगत क्षति है। मैं डा० अन्सारी तथा अन्य नेताओं द्वारा जारी की गई इस अपीलका पूरा समर्थन करता हूँ कि हकीमजीने दिल्लीमें जिस राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालयको इतने प्रेमसे पोसा है उसे किसी भी संकटसे बचानेके लिए राष्ट्रवादी भारतीयोंको चाहिए कि वे उस कोषमें चन्दा दें जो उस संस्थाकी आर्थिक स्थितिको दृढ़ आधार प्रदान करनेके लिए हकीमजी जमा कर रहे थे। लेकिन अवश्य ही इस महान देशभक्तका सर्वोत्तम स्मारक यही होगा कि हिन्दू, मुसलमान तथा भारतमें रहनेवाली अन्य जातियोंके बीच अटूट एकता स्थापित की जाये ।

[ अंग्रेजीसे ]
सर्चलाइट, ६-१-१९२८

३१८. पत्र : मणिलाल व सुशीला गांधीको

३१ दिसम्बर, १९२७

चि० मणिलाल व सुशीला,

तुम दोनोंके पत्र मिले। मैं आश्रम पहुँच गया हूँ, अत: अब डाकके बारेमें जानकारी रहेगी। तुमने अपने पत्रमें एक हकीकत तो दी है, सो ठीक किया। शास्त्रीजीके बारेमें तुमने जो लिखा है उसे मैं समझ रहा हूँ। तुम उनसे जो बात करना चाहो वह विवेक और साहसपूर्वक कर सकते हो। तुमने उनके साथ हुई अपनी बातचीतका सही व्यौरा दिया है।

डर्बनके कार्यालयको बन्द कर देनेका विचार मुझे तो पसन्द ही है। मैं तो निश्चित रूपसे यह मानता हूँ कि यदि अखबारको अखबारकी तरह न निभाया जा सके

  1. १. मृत्यु २९ दिसम्बर, १९२७ को हुई थी।