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हमारा और उनका कलंक

"तब जात-बाहर होनेकी तकलीफ सहो, और जरूरत पड़े तो गाँव भी छोड़ दो।"

इस पददलित गरीब आदमीने इसका वचन दे दिया। अगर वह अपनी बात पर कायम रहा हो, तो उसकी यह भेंट, मेरे धनी देशवासियोंके दिये धनसे कहीं अधिक मूल्यवान होगी ।

यह अस्पृश्यता हमारा सबसे बड़ा कलंक है। इसकी जलालत दिनों-दिन बढ़ती जाती है ।

मगर यह अविस्मरणीय घटना तो उस भारी शर्म और दुःखका एक अंश-भर थी। (१९१६ में[१]) चम्पारनके बाद मैंने फिर कभी यह मृत्यु-जैसा सन्नाटा नहीं देखा था, जो बाणपुरके जरिये उड़ीसामें प्रवेश करनेपर मैंने देखा है। मैंने देखा है। शायद उड़ीसाकी शान्ति चम्पारनकी शान्तिसे भी बुरी है। वहाँके किसानोंके बीच थोड़े ही दिनोंतक रहनेके बाद उनमें उत्साह आ गया था। मगर उड़ीसामें इतनी जल्दी उत्साह आने में मुझे शंका है। मुझे बताया गया है कि जमींदारों, राजाओं और स्थानीय पुलिसने किसानोंको मेरे पास आनेसे बहुत डरा दिया है। मैं तो इस विश्वासमें फूला हुआ था कि अब जमींदारों, राजाओं और छोटेसे-छोटे पुलिस अफसरोंने मुझसे डरना छोड़ दिया है। मगर यहाँ आकर मेरा खयाल बदला है। कमजोरीके कारण खुद इधर- उधर घूमनेमें असमर्थ होनेके कारण मैंने मित्रोंको लोगोंके बीच भेजा और इसके कारणका पता लगवाया । वे लोग यह खबर लाये कि लोगोंको कहा गया है कि गांधीजीके पास मत जाओ । उनके सम्मानमें किये गये किसी समारोहमें शामिल मत हो, नहीं तो सजा मिलेगी। ऐसी सूचनाएँ दूसरे प्रान्तोंमें भी दी गई हैं, मगर ऐसे साधारण दिनोंमें उनका कहीं कोई असर नहीं पड़ा है। उड़ीसाके किसान ऐसे मालूम पड़े जो सदा भयभीत रहते हैं और इसलिए उन्हें सहज ही विचलित किया जा सकता है।

यह ऐसा कलंक है जो हमारे और हमारे विदेशी शासकों, दोनोंके माथेपर है। यह सच है कि राजा और जमींदार और पुलिसके छुटभैये, सभी हमारे अपने ही भाई, अपने ही हाड़-मांस हैं। मगर इस भयके, डरके मूल कारण तो हमारे शासक हैं। उनके शासनका आधार ही है 'भय' । उन्होंने अपनी प्रतिष्ठाके नामपर हमारे बड़ेसे-बड़े लोगोंको भी किसी-न-किसी तरह झुकनेपर लाचार किया ही है। जहाँ यह पस्ती पहले ही मौजूद थी वहाँ उसे उन्होंने और ज्यादा बढ़ा दिया है। उन्हें किसानोंमें व्याप्त इस घृणित भयकी मौजूदगीका पता था । मगर जहाँ कहीं उन्होंने अपने राज्य- के हितके नामपर उसे और उसके कारणोंको अपनी छातीसे नहीं लगाया, वहाँ उसे दूर करनेका भी कोई प्रयत्न नहीं किया। इसलिए वे इन दुखद दृश्योंके लिए प्रत्यक्ष रूपसे दोषी भले न हों, तो भी इसमें उनका बहुत बड़ा हाथ है, इस इल्जामसे तो वे बरी नहीं हो सकते ।

मगर हमारा कलंक तो और भी बड़ा है। अगर हम सबल, स्वाभिमानी और निडर होते तो फिर विदेशी शासक कुछ बुराई कर ही नहीं सकते थे। जो लोग डरपोक

  1. १. गांधीजी यहाँ भूलसे १९१७ की जगह १९१६ लिख गये हैं।