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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

एक बहुत बड़ा लेख छपा था । जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, जब बहुत-से मुसलमानोंको इस पुस्तिकाके अस्तित्वका भी पता नहीं था तभी वह मेरे हाथमें आई थी। मुझे जानकारी देनेवालेकी सचाईकी परख करनेके लिए मैंने पुस्तिकाको पढ़ा और १९ जून, १९२४ के 'यंग इंडिया' में निम्न टिप्पणी भी लिखी' ।[१]

इस पर आर्यसमाजियोंकी ओरसे विरोध और आपत्तिका सिलसिला चला। मुझे आर्यसमाजियों और महान संस्थापक ऋषि दयानन्दके खिलाफ लिखे गये लेखादिकी कतरनें भेजी; जो 'रंगीला रसूल' से भी गन्दे थे और मुझे बताया गया कि 'रंगीला रसूल' और इस तरहकी दूसरी चीजें मुसलमानों द्वारा लिखी उपर्युक्त चीजोंके उत्तरमें ही लिखी गई हैं। इसपर मैंने १० जुलाई, १९२४ के 'यंग इंडिया' में एक और टिप्पणी लिखी, जो निम्न प्रकार थी।[२]

इस प्रकार मुसलमानोंके क्षोभका अनुमान मैंने पहले ही लगा लिया था और तदनुसार कार्रवाई भी की थी। लेकिन मौजूदा आन्दोलनमें मेरा और उनका साथ बस यहींतक है। इस आन्दोलनने जो मोड़ लिया वह मुझे पसन्द नहीं आया। मैंने इसे अतिवादितापूर्ण और जनताको भड़कानेवाला माना । न्यायमूर्ति दलीपसिंहपर किया गया प्रहार अकारण, अनुचित और पागलपनभरा था। न्यायपालिकाके बारेमें भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसे सरकार प्रभावित नहीं कर सकती, लेकिन यदि उसे जनताके प्रहारों, धमकियों और अपमानोंको सहना पड़े तो वह न्याय करने के लायक बिलकुल नहीं रह जायेगी। जहाँतक न्यायाधीशको ईमानदारीका सम्बन्ध था, इतनेसे किसी भी मुसलमानको सन्तुष्ट हो जाना चाहिए था कि उन्होंने बिना किसी लाग लपेटके पुस्तिकाकी भर्त्सना की । न्यायाधीशके द्वारा की गई सम्बन्धित धाराकी व्याख्याको उनके विरुद्ध इतना तीव्र दोषारोपण करनेका कारण नहीं बनाना चाहिए था। अन्य न्यायाधीशोंने न्यायमूर्ति दलीपसिंहसे[३] भिन्न मत जाहिर किया, इससे यहाँ कोई फर्क नहीं पड़ता। न्यायाधीशगण तो पहले भी अकसर एक ही कानूनकी एक- दूसरेसे सर्वथा भिन्न, फिर भी ईमानदारी-भरी व्याख्या करते देखे गये हैं। इस धाराको सख्त बनवाने के लिए आन्दोलन करना ठीक हो सकता है, हालांकि खुद मेरी राय में तो यह भी ठीक नहीं होगा । कारण यह है कि धारामें किसी प्रकारकी सख्ती लानेकी प्रतिक्रिया खुद हमारे खलाफ होगी, और उसका उपयोग अंग्रेजी हुकूमत के शिकंजेको हमपर और भी कसनेके लिए किया जायेगा। इस तरहकी बहुत-सी धाराओंका ऐसा उपयोग पहले भी किया जा चुका है। लेकिन अगर मुसलमान या हिन्दू ऐसे लेखोंको स्पष्ट रूपसे दण्ड-विधानकी सीमामें लाने के लिए आन्दोलन करना चाहें तो उन्हें वैसा करनेका अधिकार है।

  1. १. टिप्पणी यहाँ नहीं दी जा रही है; देखिए खण्ड २४, पृ४ २६८-६९ ।
  2. २. यहाँ नहीं दी जा रही है; देखिए खण्ड २४, पृष्ठ ३७४-७६ ।
  3. ३. पंजाब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, जिन्होंने अपील करनेपर पुस्तिकाके लेखकको रिहा कर दिया था।