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पत्र : के० एस० कारंतको

तो मेरी इच्छा आपको किताब छपवानेसे रोकनेकी नहीं है। आसन और प्राणायाम अगर वास्तवमें उतने ही कारगर हैं जितना कि दावा किया गया है तो आप स्वयं उनको पूरी तरह प्रयुक्त करके क्यों नहीं देखते ? मेरा इरादा खुद वैसा करनेका था लेकिन मेरी बीमारीके कारण स्वयं विशेषज्ञोंने मुझे मना कर दिया ।

मैं ब्रह्मचर्य और विधवा पुनर्विवाहका एक साथ समर्थन करनेमें तबतक कोई असंगति नहीं देखता जबतक मैं ये दोनों चीजें एक ही व्यक्तिके सन्दर्भमें न कहूँ । हालाँकि मैं चाहूँगा कि सभी नौजवान ब्रह्मचारी हों और रहें, लेकिन मैं ऐसे लोगोंके विवाहका समर्थन करनेमें बल्कि उनका विवाह करवाने में नहीं हिचकता जो आत्म- संयम बरत सकना असम्भव पाते हैं। अवश्य, जब मैं बाल-विधवाओंके विवाहका समर्थन करता हूँ तो मैं ऐसा मानकर चलता हूँ कि वे वही सुख चाहती हैं जिसकी सभी जीव कामना करते हैं, और केवल कुछ मानव ही प्रयत्नपूर्वक आत्म-संयम कर पाते हैं। ब्रह्मचर्य कोई ऐसी चीज नहीं है जो ऊपरसे थोप दी जाये और बाल-विधवाओंको अविवाहित रहने के लिए विवश करना पाप है।

जिन पतित बहनोंका आपने जिक्र किया है, यदि उनको किसी भी जाति के आदमीसे विवाह करनेमें आपत्ति न हो तो उन्हें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए, और न उन्हें किसी भी जातिपर आपत्ति करनी चाहिए। यदि वे उपयुक्त वर नहीं प्राप्त कर सकतीं तो मेरा उनसे ब्रह्मचर्य पालन करनेको कहना अर्थपूर्ण है। अर्थात् यदि वे किसी जातिकी या किसी प्रान्तकी सीमा अपने ऊपर लगाना चाहें, और फिर भी शुद्ध जीवन व्यतीत करना चाहें, तो स्वभावतः उन्हें ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिए; अन्यथा उन्हें किसी भी सामाजिक स्थितिका कोई भी आदमी स्वीकार कर लेना चाहिए ।

आप 'सेल्फ रेस्ट्रेन्ट वर्सेस सेल्फ इंडलजेंस' का अनुवाद छाप का अनुवाद छाप सकते हैं । लेकिन कृपया वैसा करने से पहले 'नवजीवन' के प्रबन्धकसे पूछ लें वर्ना उन्होंने कहीं किसी दूसरेको अनुमति न दे दी हो ।

आपने रामकृष्ण परमहंसके बारेमें क्या लिखा है सो मैं नहीं जानता। आपकी सूचनाके बावजूद यह कहना गलत नहीं होगा कि वह अहिंसाकी साक्षात् मूर्ति थे । वह उस धर्ममें विश्वास करते थे और अपनी बुद्धिके अनुसार उसका पालन करनेका उन्होंने प्रयत्न किया। भले ही उन्होंने कुछ ऐसी चीज की, जो आज हमारे अपेक्षाकृत अधिक व्यापक अनुभवके कारण अहिंसाके सिद्धान्तके विरुद्ध प्रतीत होती है, लेकिन वह रामकृष्णके गुणोंको कम नहीं करती; क्योंकि वह अपने चारों ओर प्रचलित प्रथाओंसे बाहर हटकर नहीं सोच सकते थे । जहाँतक भोजनका सम्बन्ध है, यह सम्भव नहीं[१] है कि भावी पीढ़ियाँ पके हुए खानेको अहिंसाके विरुद्ध बतायेंगी लेकिन इसके बावजूद अहिंसाके मौजूदा प्रामाणिक ज्ञाता पका हुआ भोजन खानेकी असंगतता न समझ पानेके लिए निन्दाके पात्र नहीं होंगे। कोई भी व्यक्ति पूर्ण अहिंसाका पालन नहीं कर सकता । भौतिक शरीरके चलते कुछ हिंसा लाजमी है जिससे बचा नहीं

  1. १. "नहीं" (नॉट ) शायद भूलसे लिखा गया है।