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१४. पत्र : प्रागजी देसाईको

[२२ सितम्बर, १९२७ से पूर्व ]

[१]

भाईश्री प्रागजी,

तुम्हारा पत्र मिला । शास्त्रीजीको तुमसे ठीक मदद मिल रही है। तुम्हारे मामलेका जो भी निर्णय हो तुम्हें चिन्ता करनेका कोई कारण नहीं है। शास्त्रीजी अपनी ओर से भी [ तुम्हारी सहायता के लिए] प्रयत्न कर ही रहे होंगे। तुम 'इंडियन ओपिनियन' में आ गये हो इसका यह अर्थ तो लगाया जा सकता है न कि वहाँ धनोपार्जन करनेका तुम्हारा जो इरादा था उसे अब तुमने छोड़ दिया है ? मेढका क्या हाल है ? तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है? जो भी हो वहाँके किसी शौकमें मत पड़ना और असत्य तथा दुराव-छिपाव आदिसे बचना ।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी० एन० ५०४२) की फोटो-नकलसे ।

'रंगीला रसूल'

समझदार और जो समझदारोंकी श्रेणीमें नहीं आते हैं, ऐसे तमाम पत्रलेखकोंको कोंचते रहनेपर भी मैं इस पुस्तिकाको लेकर छिड़े विवादमें पड़नेके लोभका अबतक संवरण करता आया हूँ। मैं धैर्यपूर्वक निजी पत्रों द्वारा ही इनका समाधान करनेकी कोशिश करता रहा हूँ। लेकिन इधर हालमें इतने ज्यादा पत्र आये हैं कि निजी तौरपर उनका उत्तर दे सकना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। सबसे ताजा पत्र बिहारके एक मुसलमान प्रोफेसरसे मिला है। उन्होंने मुझे अखबारकी एक कतरन भेजी है जिसमें एक पत्र छपा है । पत्रलेखकने मुझे इस बात के लिए फटकारा है कि मैंने भी चुप्पीकी उस साजिशमें शामिल होना ही पसन्द किया है, जिस साजिशमें आम तौरपर सभी प्रमुख हिन्दू शामिल हैं। प्रोफेसर साहब चाहते हैं कि मैं इसका उत्तर तत्काल दूं । इस आशासे कि पत्रलेखक लोग मेरी सदाशयतासे संतुष्ट हो जायेंगे और मेरी चुप्पीका कारण समझेंगे, मैं प्रोफेसर साहीकी इच्छानुसार तत्काल उत्तर दे रहा हूँ। चूँकि में एक स्थानीय पत्रके अलावा और कोई अखबार नहीं पढ़ता, इसलिए हिन्दू नेताओंकी "चुप्पीकी साजिश " का मुझे तो कोई ज्ञान नहीं है। अभी मैं सबसे ज्यादा 'हिन्दू' को पढ़ता हूँ और मुझे याद है कि उसमें 'रंगीला रसूल' के खिलाफ

  1. १. पत्रके पाठसे जान पड़ता है कि यह “पत्र : प्रागजी देसाईको ", २३-९-१९२७ तथा " पत्र : वी० एस० श्रीनिवास शास्त्रीको ”, २२-९-१९२७ से पहले लिखा गया होगा।