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२६५. पत्र: जे० डब्ल्यू० पेटावलको

(शिविर) बालासोर
१४ दिसम्बर, १९२७

प्रिय मित्र,

ट्रेनपर लिखा गया आपका पत्र मुझे मिला। यह बड़ी ही दुखद बात है क्योंकि, हालाँकि मैं मानता हूँ कि मेरा स्वभाव काफी लोचशील है, लेकिन जहाँ आप कुछ तफसीलके मामलेमें ही भिन्नता देखते हैं वहाँ मैं आपके और अपने बीच काफी महत्त्वपूर्ण मतभेद देखता हूँ। मुझे लगता है कि हमारे दृष्टिकोण बिलकुल भिन्न हैं । जहाँ आपकी आँखोंके सामने एक नगण्य अल्पसंख्यक लोग अर्थात् शिक्षित भारतीय हैं, वहाँ मेरी आँखोंके सामने तुच्छतम अपढ़ भारतीय हैं जो रेलवे लाइनोंसे बहुत दूर रहते हैं। निःसन्देह शिक्षित भारतीयोंका वर्ग एक महत्त्वपूर्ण वर्ग है, लेकिन मेरे लेखे उनका महत्त्व अपढ़ भारतीयोंके ख्यालसे ही है, और उन्हींके वास्ते है । शिक्षित वर्ग अपने अस्तित्वका औचित्य तभी सिद्ध कर सकता है जब वह जनसाधारणके लिए अपने आपको उत्सर्ग करनेको तैयार हो । इसलिए आपकी योजना मुझे बिलकुल प्रभावित नहीं करती। मैंने सर प्रफुल्लचन्द्र रायकी भूमिका पढ़ी है, और आप अन्य जो-कुछ लेख भेजते रहे हैं उन्हें भी मैंने पढ़ा है। हालाँकि मैं इन महान लोगोंकी सराहना करता हूँ, लेकिन वे मुझे मेरी बुनियादी स्थितिसे नहीं हिला सकते। इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप अपने और मेरे बीच बुनियादी मतभेदोंको स्वीकार करें और इन मतभेदोंके बावजूद यदि कर सकें तो मुझसे प्रेम करें। जहाँतक मेरा सवाल है, यह मतभेद मुझे आपसे प्रेम करनेसे नहीं रोकता और इसीलिए मैं आपको आपके पत्रोंके जवाबमें जितना अकसर लिख सकता हूँ, लिखता हूँ, और हम दोनोंके स्वभावके अन्तरोंको स्पष्ट करनेकी कोशिश करता हूँ ताकि हम शीघ्र ही यह स्वीकार कर लें कि हममें मतभेद हैं, और आशा करें कि एक दिन हममें से कोई एक दूसरेकी बात स्वीकार कर लेगा ।

हृदयसे आपका,

कैप्टेन जे० डब्ल्यू० पेटावल

बागबाजार

कलकत्ता
अंग्रेजी (एस० एन० १२६४८) की फोटो-नकलसे ।