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पत्र: रमेशचन्द्रको

एक धोती ही पहनती हैं -- आधा भाग कमरमें और आधा भाग शरीरके ऊपरके हिस्सेके लिए। खानेमें न घी मिलता है, न दूध । लोग सब भयभीत हैं। किसी पुलिसवालेने डरा दिया है, इसलिए मेरे पास भी नहीं आते। एक घरमें मीराबहनको अकेली छोड़कर मैं चला गया, तो पचासों स्त्रियाँ उसे घेर कर बैठ गईं और अनेक प्रकारकी बातें पूछने लगीं। अगर कोई बहन इन बहनोंमें काम करनेके लिए तैयार हो तो मेरी रायमें वह बहुत कुछ कर सकती है। मगर यह सब तो भविष्यकी बात हुई। अभी तो तुम सब तैयार हो जाओ। तैयार होनेका मतलब है 'मैं-पन' भूल जाओ। इतना कर लो तो कहीं भी जा सकती हो ।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी० एन० ३६८०) की फोटो-नकलसे ।

२६३. पत्र : रमेशचन्द्रको

मुसाफरी में
१३ दिसम्बर, १९२७

भाई रमेशचंद्रजी,

आपको उत्तर देनेकी आशासे आपका पत्र मैंने आजतक रक्खा । आज उत्तर दे सकता हुं ।

मांस भक्षण और वनस्पति भक्षण दोनों हिंसा है परंतु एक वस्तुके सिवा मनुष्य कहीं भी नहीं जी सकता है दूसरेके सिवा प्रायः सब जगहमें जी सकता है । यदि जीव जीवमें दुःखके ज्ञानका भेद है तो जो दुःख गायको मरनेके समय होता है वह बनस्पति जीवको नहि होता है। जीव मात्रके लीये कुछ न कुछ हिंसा अपरिहार्य है। अहिंसा धर्मका पालक अल्पतम हिंसा करेगा । अन्य धर्मोंमें मांसाहारकी आज्ञा नहिं है उसका प्रतिबंध नहि है। दूसरे धर्मोमें या तो हिंदु धर्ममें भी वैसी प्रथा है हमारे जाणना अच्छा है। परंतु यदि हमारी बुद्धि निरामिषाहारको नैतिक दृष्टिसे विषेश माने तो हमारे उसका स्वीकार करना चाहीये । अहिंसाका उपासक वनस्पतिके उपयोगमें भी मर्यादित होता जायगा । ग्रीनलैंड इत्यादि प्रदेशमें निरामिषाहारी रहना कठिन है, असंभवित नहिं । यदि असंभवित भी सिद्ध कीया जाय तो भी इससे हर जगह मांसाहारकी आवश्यकता सिद्ध नहि हो सकती है। प्रवृत्तिमात्र सदोष होते हुए भी हम तुलना करके बहोतका त्याग करते रहते हैं। मुमुक्षुके जीवनमें निरंतर त्याग वृत्तिकी वृद्धि होती है, होना आवश्यक है।

दूध अंडेमें भेद है। अंडे अनावश्यक हैं। दूध भी करोड़ोंके लीये अनावश्यक है। मैंने मूर्छाके वश होकर विलायतमें अंडे खाये हैं जैसे इस देशमें मांस । परंतु अब मैं सावधान हुआ तब मैंने उसका त्याग [ कीया] और निरामिषाहारी मित्रोंके साथ [ भी ] इतनी हि चीझ लेता था जिसमें अंडे न थे । इत [ना ] मैंने अब समझ लीया