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देव मन्दिर

बताता है कि हृदयकी शुद्धि और भक्तिभाव, ये दो बातें शास्त्रोंको अच्छी तरह समझनेके लिए जरूरी हैं ।

छापेखानोंके मौजूदा जमानेने सारे बन्धन तोड़ डाले हैं। आज जितनी आजादीसे धर्मनिष्ठ लोग शास्त्र पढ़ते हैं, (यदि अधिक नहीं तो) उतनी ही आजादीसे नास्तिक भी पढ़ते हैं। किन्तु यहाँ तो चर्चाका विषय इतना ही है कि धर्मको शिक्षा और उपासनाके एक अंगके रूपमें विद्यार्थियोंका 'गीता' पढ़ना ठीक है या नहीं। इसके बारेमें मैं यही कहूँगा कि यम-नियमके पालनकी शक्ति और इस कारण 'गीता' पढ़नेकी योग्यतामें विद्यार्थियोंसे बढ़कर अन्य कोई भी वर्ग मेरे ध्यानमें नहीं आता । दुर्भाग्यसे यह मानना पड़ता है कि अधिकांश विद्यार्थी और शिक्षक पाँच यमोंके सच्चे अधिकारकी ओर किंचित् भी ध्यान नहीं देते।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ८-१२-१९२७

२४९. देव-मन्दिर

यहाँ लंकामें ऐसे वातावरणके बीच जहाँ प्रकृतिने मुक्त हाथों अपना बहुमूल्य खजाना लुटाया है, 'यंग इंडिया' के लिए लिखते हुए मुझे अपने एक कवि-हृदय मित्रके पत्रकी याद आती है जिसे उन्होंने ऐसे ही वातावरण से प्रभावित होकर लिखा था । उस पत्रका एक अनुच्छेद मैं पाठकोंके सामने रखता हूँ :

एक मनोरम भोर ! शीतल और मेघाच्छादित, जिसमें तन्द्रिल सूर्य की किरणें ऐसी कोमल लगती हैं जैसे मखमल। यह भोर आश्चर्यजनक रूप से शान्त है -- उसमें प्रार्थना-जैसी खामोशी छाई हुई है। कुहरा ऐसा प्रतीत होता है जैसे धूप का धुआँ हो, वृक्ष ध्यानमग्न पुजारियों की तरह लगते हैं और पक्षी भजन गानेके लिए आये हुए तीर्थ यात्रियों के समान प्रतीत होते हैं ? काश !भगवान्‌ की भक्तिमें तन्मय होनेकी कला हम प्रकृतिसे सीख सकते । लगता है कि हम जब, जहाँ और जैसे चाहें, वैसे पूजा करनेका अपना जन्मसिद्ध अधिकार भूल बैठे हैं। हम मन्दिरों, मस्जिदों और गिरजाघरोंका निर्माण करते हैं ताकि हमारी पूजा अर्चना ताँक-झाँक करनेवाली आँखों और बाह्य प्रभाव से सुरक्षित रहे। लेकिन हम भूल जाते हैं कि दीवारों के भी कान और आँखें होती हैं और फिर कौन जाने कि छतोंमें भूतोंने डेरा ही डाल रखा हो ।

लेकिन मैं बहक रहा हूँ; ऐसा ही लिखता रहा तो शायद अगले क्षण में अपनेको उपदेश देता हुआ पाऊँगा। इतनी सुन्दर भोर में यह कैसा मूर्खता-पूर्ण कार्य है। समीपके ही उद्यान में एक नन्हा बच्चा पक्षी की तरह सरल