२४५. पत्र : मणिलाल व सुशीला गांधीको
५ दिसम्बर, १९२७
मुझसे इस बारकी डाक चूक गई। मैं लंका- प्रवासमें कामका ठीक सिलसिला कायम नहीं रख सका। बहुत अधिक घूमना-फिरना हुआ । किन्तु इस प्रकार यदि मुझसे डाक चूक जाये तो तुम घबराना नहीं और न मेरी चूकका अनुकरण ही करना । तुम दोनों मेरी तरह कर्मठ बनो और साथ ही मेरे दोषोंको नजर अन्दाज करना न सीखो, और फिर चूको तो भले ही चूको । वास्तवमें सही उत्तराधिकारी तो वही है जो उत्तराधिकारमें वृद्धि करता है।
सुशीलाका यह लिखना ठीक है कि कलामें स्वदेशी और परदेशीका भेद नहीं होता। किन्तु उसके इस कथनपर थोड़ा विचार करना उचित होगा । कलाके सम्बन्ध में उथली दृष्टिसे विचार करते हुए कलाप्रेमी उसकी आड़ में बहुतसे दोष छिपा देते हैं । अतः हम इस बातपर विचार करें कि कला किसे कहना चाहिए। जो कुछ भी हमारी आँखको रुचे वह सब कला नहीं है। अनेक विशेषज्ञों द्वारा स्वीकृत कला भी कला नहीं हो सकती। अनेक चित्रों तथा प्रतिमाओंके बारेमें मुझे विश्व विख्यात कला समीक्षकोंके भिन्न-भिन्न विचार पढ़ने को मिले हैं। अतः हमें इस बातपर विचार करना चाहिए कि कला क्या है । 'कला क्या है'[१] नामक पुस्तकका अनुवाद हो गया है। यह पुस्तक सुशीलाको पढ़ लेनी चाहिए। यदि वहाँ यह पुस्तक उपलब्ध न हो तो मुझे लिखना ।
देवदासने बीमारी में बहुत कष्ट उठाया है। उसकी नाकमें कुछ खराबी आ गई है। फिर बुखार आया । अब वह ठीक है । वा उसके पास गई है। आज मैं उत्कलमें हूँ ।
बापूके आशीर्वाद
- गुजराती (जी० एन० ४७३१) की फोटो-नकलसे।
- ↑ १. लिपो टॉल्सटॉथ कृत पुस्तक, व्हाट इज़ मार्ट ।