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२२४. पत्र : सुरेन्द्रको

२८ नवम्बर, १९२७

देवदासकी स्थिति अत्यन्त दयनीय है। राजाजी लक्ष्मीको उसके हाथों में सौंपने- को कदापि तैयार नहीं होंगे जो कि उचित भी है । लक्ष्मी उनकी आज्ञाके बिना एक कदम भी आगे नहीं रखेगी। वह तो आनन्द विभोर है जबकि देवदास दीवाना बनकर लक्ष्मीके नामकी माला जपता रहता है और कष्ट पा रहा है। यदि वह इतना प्रेम ईश्वरसे करता तो साधुओंमें गिना जाता और उच्च कोटिका सार्वजनिक कार्यकर्त्ता बनता।

किन्तु देवदास भी प्रकृतिके विरुद्ध कैसे जा सकता है। उसे मेरी आज्ञा माननी है किन्तु उसकी आत्मा उसके विरुद्ध जाती है। ऐसा लगता है कि वह यह मान बैठा है कि लक्ष्मीके साथ उसका विवाह मैं नहीं होने देता; इससे वह मुझसे चिढ़ा रहता है। इस स्थितिसे उसे कैसे उबारा जाये यह फिलहाल मुझे सूझ ही नहीं रहा है। तुम लोगोंमें से कोई उसे किसी तरह शान्त कर सको, उसे धर्मका बोध करा सको तो कराना । यह भी सम्भव है कि मैं देवदासको समझा न होऊँ और इस कारण उसके प्रति अन्याय करता होऊँ । यदि पत्र लिखनेसे उसे शान्ति मिल सकती हो तो लिखना। मैं तो उसे प्रायः लिखता ही रहता हूँ ।

यह तो मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि उसकी बीमारियोंका कारण उसके मनमें मरे विकार ही हैं। अनजाने ही ये विकार मनुष्यको कुतर-कुतर कर खाते रहते हैं। इस बारेमें मुझे तनिक भी शंका नहीं है। देवदास स्वयंको विलासी मानता है यह सच है किन्तु उसके बारेमें विलासी शब्द हलका है। उसका मन विषयी है, यह वह स्पष्ट नहीं देख पा रहा है इस कारण विषय-वासना उसे खाए जा रही है।

[ गुजरातीसे ]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई




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