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भाषण : भारतीयोंकी सभा, जफनामें

उसी बातको हजारवीं बार दोहराऊँगा जो मैं श्रोताओंसे सभी जगह कहता आ रहा । वह यह है कि जबतक आप ये दान देने के साथ-साथ भविष्यमें अपनी वस्त्र सम्बन्धी आवश्यकताएँ पूरी करनेके लिए केवल खादी ही खरीदनेका निश्चित संकल्प नहीं लेते तबतक ऐसा नहीं माना जायेगा कि आपने इन क्षुधा-पीड़ित भाई-बहनोंके प्रति अपना बुनियादी कर्त्तव्य पूरा किया ।

और इस भवनमें उपस्थित बहनोंको भी उन करोड़ों क्षुधात लोगोंकी सहायता करनी चाहिए और उनके मूक अनुरोधके प्रति संवेदनशील होना चाहिए । न उन्हें और न पुरुषोंको ही नाक-भौंह सिकोड़कर मुझसे ऐसा कहना चाहिए कि खादी तो बहुत महँगी है, यह काफी नफीस नहीं है और यह हमारी रुचिके अनुकूल भी नहीं है। आजतक मैंने किसी भी माँको अपने बच्चोंके सुन्दर न होनेकी शिकायत करते नहीं सुना है और न यही कहते सुना है कि उसके बच्चे तो उसके आर्थिक साधनोंके लिए भार-रूप हैं। यदि इन करोड़ों क्षुधात मानवोंके लिए आपके हृदयमें दर्द है, यदि आप सचमुच ऐसा मानते हों कि वे क्षुधापीड़ित हैं और आपके अपने ही सगे भाई-बहन हैं, तो फिर आप खादीकी ऊँची कीमत या उसकी घटिया किस्म के बारेमें शिकायक कैसे कर सकते हैं ? जब आप देख रहे हैं कि करोड़ों लोगोंके पास खानेको कुछ नहीं है और उन्हें तभी खिलाया जा सकता है जब आप उनके पवित्र किन्तु काँपते हुए हाथोंसे तैयार की गई खादी पहनें, तो आपको फैशन या कीमतके बारेमें सोचनेका क्या अधिकार है ?

क्या आप उन अंग्रेजों और जर्मनोंसे कुछ सबक नहीं लेंगे जिन्होंने एड़ी-चोटीका पसीना एक कर दिया, अकथनीय यातनाएँ सहीं, और अवर्णनीय रूपसे भयंकर परिस्थि- तियोंमें तरह-तरहकी मुसीबतें झेलीं मृत्युतकका सामना किया ? और यह सब किस- लिए ? सिर्फ उस चीजके लिए जिसे वे अपने देशकी प्रतिष्ठाका प्रश्न समझते थे । फिर आप ही सोचिए कि कृत्रिम रुचियों और फैशनकी पोशाकोंके सम्बन्धमें अपनी धारणाओंको छोड़ देना तथा खादीके लिए कुछ अधिक कीमत देनेको तैयार रहना आपके लिए कितना ज्यादा जरूरी है; क्योंकि यहां सिर्फ आपकी बहनोंकी प्रतिष्ठा ही खतरेमें नहीं है, बल्कि उनके अस्तित्वपर ही बन आई है ।

इसलिए मैं उस दिनकी कामना करता हूँ जब आप श्रीयुत राजगोपालाचारीपर खादीके, बल्कि यदि आपको फैशनेबुल साड़ियाँ चाहिए ही तो सुन्दर और कढ़ाई- वाली साड़ियोंके आर्डरोंकी बौछार कर देंगे। लेकिन, अब मुझे एक अन्य विषयपर भी कुछ कहना चाहिए ।

जब कभी मैं भारतसे बाहरके देशोंमें गया हूँ, बल्कि भारत में भी मैं जब-जब विभिन्न प्रान्तोंमें गया हूँ, तब मैंने उन देशों या प्रान्तोंमें बाहरसे आकर बसे लोगोंको यही सलाह दी है कि वे जहाँ बस गये हैं, उस स्थानके हितोंको प्रमुख महत्त्व दें और अपने हितोंको गौण बना दें। चाहे आप हिन्दू हों या पारसी अथवा मुसलमान; भले ही आप किसी भी प्रान्तके हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं तो समझता हूँ कि आपका यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि आप उस देशके मूल निवासियोंके बीच उनके हृदयमें चुभनेवाले