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२१७. एक पत्र

२७ नवम्बर, १९२७

हममें से यह तो कोई नहीं कह सकता कि म० की विषय-वासना कैसे शान्त होगी। मैं इतना जानता हूँ कि उसकी विषय-वासना शान्त करना तुम्हारा धर्म नहीं है। एक दूसरेकी विषय-वासनाको शान्त करना पति-पत्नी दोनोंमें से किसीका धर्म नहीं है। यह उद्देश्य दोनोंकी सहमतिसे ही पूरा होना चाहिए। संसार तो चलता ही जा रहा है; क्योंकि विषय-भोगमें सभी तो फँसे हुए हैं। उसे रोकना सबका कर्त्तव्य है। इसे रोकने की चेष्टा करते हुए कोई महापराक्रमी तर ही जाता है ।

[ गुजरातीसे ]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई

२१८. जफनामें ईसाई मिशनरियोंके साथ चर्चा

[१]

२७ नवम्बर, १९२७

रेवरेंड डब्ल्यू० ए० कथिगंमेरने पूछा कि धर्मके क्षेत्रमें भारतका क्या भविष्य है; उसमें ईसाइयोंका क्या सहयोग रहेगा और गांधीजी ईसाइयोंसे क्या अपेक्षा रखते हैं।

महात्माजीने उत्तर दिया कि पहले प्रश्नका उत्तर देना मेरी क्षमतासे बाहर है। हाँ, दूसरे प्रश्नका उत्तर में दे सकता हूँ। पिछले अनेक वर्षोंसे मेरी यही अभिलाषा रही है कि भारतमें सभी धर्मोको अपने वास्तविक रूपमें, सत्यके अपने अनुभूत अंशके आधारपर फूलना-फलना चाहिए। यह इसलिए कि म किसी भी एक धर्मको समग्र सत्यका प्रवक्ता नहीं मानता। चूँकि मेरा यही दृष्टिकोण है और चूँकि जीवन भर मेरा स्वभाव सहिष्णुताका रहा है, इसलिए मेरी अपनी कोई पसन्द या नापसन्दगीइस मामलेमें नहीं है। मैसूरके दीवान साहबने ईसाई मिशनरियों और मुसलमानोंसे अपील की है कि वे अछूतोंका धर्म-परिवर्तन करानेके बदले उनको बेहतर हिन्दू बनानेकी कोशिश ही करें। मैं उनकी इस अपीलकी ताईद करता हूँ। मेरा खयाल है कि यदि भिन्न-भिन्न महान धर्मोके सभी अनुयायी एक-दूसरेके सम्पर्कसे अपने आपको बेहतर इन्सान बनाने की कोशिश करें, तो हमारा यह संसार मनुष्यके रहनेके लिए कहीं एक अधिक सुन्दर स्थान बन जायेगा । जबतक भिन्न-भिन्न वृष्टिकोण रहेंगे तबतक ईसाई धर्म, इस्लाम और हिन्दू धर्म जैसे विशाल धार्मिक वर्ग बने ही रहेंगे; और

  1. १. मिशनरी सम्मेलनमें।