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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्राचीन नियमोंके गड़े मुर्दे उखाड़कर अस्पृश्यताकी घृणित प्रथाका औचित्य सिद्ध करने- की कोशिश की जा रही है। आपको शायद मालूम हो कि ऐसा ही एक प्रयास अब देवदासियोंकी प्रथाका औचित्य ठहरानेके लिए किया जा रहा है।

मैंने आपको जो चेतावनी दी है कि प्राचीन संस्कृतिके पुनरुद्धारके नामपर बहकावे में आकर आप गलत काम न करें, उससे आप ऐसा न समझें कि मैंने यों ही एक इतना लम्बा भाषण दे डाला है। अब आप शायद समझ गये होंगे कि यह चेतावनी कितनी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह चेतावनी आपको एक ऐसा व्यक्ति दे रहा है जो प्राचीन संस्कृतिका मात्र प्रेमी ही नहीं, वह जीवन-भर इसी कोशिशमें भरसक लगा रहा है कि प्राचीन संस्कृतिके सभी उच्चादर्शपूर्ण और स्थायी महत्त्वके उपादानोंको नया जीवन दिया जाये । प्राचीन संस्कृतिके छिपे हुए खजानेकी खोज करते-करते ही मुझे यह अनमोल रत्न हाथ लगा है कि प्राचीन हिन्दू संस्कृतिमें जितना भी कुछ स्थायी महत्त्वका है वह हमें ईसा, बुद्ध, मुहम्मद और जरतुश्तके उपदेशोंमें भी समान रूपसे मिलता है। इसीलिए मैंने अपने तई यह तरीका निकाल लिया है कि जब मुझे हिन्दू धर्म में कोई ऐसी बात दिखाई पड़ती है जिसके बारेमें प्राचीन शास्त्रकार सहमत हैं, किन्तु जो मेरे ईसाई-बन्धु या मेरे मुसलमान भाईको स्वीकार्य नहीं है तब मुझे तत्काल उसकी प्राचीनतापर सन्देह होने लगता है । इस प्रकारके विवेचनके फलस्वरूप ही मैं इस अनिवार्य निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि हमारे इस विश्व में सबसे अधिक प्राचीन यदि कुछ है तो यही दो तत्व है-- सत्य और अहिंसा । मैंने सत्य और अहिंसापर विचार करते-करते ही यह अनुभूति की है कि मुझे किसी भी उस प्राचीन प्रथा या रीति-रिवाजका पुनरुद्धार करनेकी कोशिश नहीं करनी चाहिए जो हमारे वर्तमान -- आप चाहें तो कहिए आधुनिक -- जीवनसे मेल न खाता हो । प्राचीन प्रथाएँ या रीति-रिवाज अपने उस कालमें सर्वथा उपयोगी और शायद नितान्त आवश्यक भी रहे हों जब उनको अपनाया गया था, परन्तु हो सकता है कि आधुनिक युगकी आवश्य- कताओंसे उनकी पटरी पूरी तरह न बैठती हो, भले ही वे सत्य और अहिंसा के प्रतिकूल न हों। अब आप खुद देख सकते हैं कि हम जिसे करुणानिधि, दयामय, क्षमाशील आदि नाम देते हैं, उसी ईश्वरके नामपर बरकरार रखी जानेवाली अस्पृश्यता, देवदासी प्रथा, शराबखोरी, पशु-बलि इत्यादिको जब हम एक ही झटकेमें, निर्ममताके साथ एक तरफ हटा देते हैं तो हमारे सामनेका मार्ग कितना प्रशस्त, कितना निरापद बन जाता है। ये प्रथाएँ हमारी नैतिकता की भावनाको ठेस पहुँचाती हैं, इसलिए हम विना हिचकिचाये तुरन्त इनका परित्याग कर सकते हैं। इसका निषेधात्मक पहलू आपने देखा। इसका एक रचनात्मक पहलू भी है, जो उतना ही महत्त्व रखता है।

इसका रचनात्मक पहलू आपके सामने रखनेके सिलसिलेमें मैं अहिंसाके सिद्धान्तके एक नितान्त आवश्यक, सहज निष्कर्षकी ओर आपका ध्यान आकर्षित करता हूँ। मैंने इसे अपने अत्यन्त ही प्रिय मित्रों, चेट्टिनाडके चन्द बड़े ही कर्मठ समाज-सुधारकोंके सामने पेश किया था । वह निष्कर्ष या तर्क यह है -- यदि हम अहिंसाका वरण करते तो फिर हमको संसारकी किसी भी ऐसी वस्तुकी आकांक्षा नहीं करनी चाहिए