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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लोगोंसे, जो ऐसे फैशनकी बात कभी सोच ही नहीं सकते, किस प्रकार अलग करते जा रहे हैं, इसका उन्हें कोई भान नहीं है। मुझे तो यही लगता है कि यदि आप अपनी सादगीको छोड़कर इस झूठी चमक-दमकको अपना लेंगे तो यह इस महान राष्ट्रके लिए अशुभ, बहुत ही अशुभ बात होगी ।

लेकिन, आप चरखेके इस सांस्कृतिक पहलूको समझें या न समझें, आप कई मंचोंसे स्वेच्छासे भारतके प्रति अपनी निष्ठाकी घोषणा तो कर ही चुके हैं आपने उसे अपनी मातृभूमि कहा है। बड़ी-बड़ी थैलियाँ भेंट करके आपने उस निष्ठाका व्यावहारिक प्रमाण भी दिया है। अब आपसे मेरा यही अनुरोध है कि आप दोनों देशोंको जोड़नेवाली इस कड़ीको और भी मजबूत बनायें और आपके अनुदानोंसे जो खादी तैयार होगी उसे अपने कपड़े रखनेकी आलमारियोंमें पर्याप्त स्थान देकर इस सम्बन्धको आप जीवन्त रूप दें।

आपने मुझपर जिस प्रकार हृदय खोलकर स्नेह और कृपाकी वर्षा की है उसका तनिक भी प्रतिदान देनेकी सामर्थ्य मुझमें नहीं है, लेकिन मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भूखसे तड़पते वाणीहीन करोड़ों लोग, जिनके लिए आपने धन दिया है, आपको इस सहायताके लिए आशीर्वाद देंगे, और उन करोड़ों लोगोंके एक आत्म-नियुक्त अदनासे प्रतिनिधिके नाते मैं सर्वशक्तिमानसे यही प्रार्थना कर सकता हूँ कि वह आपका कल्याण करे और इस सुन्दर द्वीपके तमाम लोगोंको वे सभी शक्तियाँ और सम्पदाएँ प्रदान करे जिनके आप पात्र हैं। मैं स्वयंसेवकों और स्वागत-समितिके सदस्योंको भी हम जबतक यहाँ रहे तबतक उन्होंने मेरे और मेरे साथियोंके प्रति जो स्नेह दिखाया, उसके लिए धन्यवाद देता हूँ ।

[ अंग्रेजीसे ]
विद गांधीजी इन सीलोन

१४. भाषण : जफनाकी सार्वजनिक सभामें

२६ नवम्बर, १९२७

इन सभी मानपत्रों और अनेकानेक थैलियोंके लिए मैं आपका बहुत आभारी हूँ ।

आपने जिस भावनाके वशीभूत होकर अपने भेंट किये सभी मानपत्रोंको यहाँ पढ़नेका आग्रह नहीं किया, उसकी मैं कद्र करता हूँ, लेकिन स्वागत समितिने बहुत ही सौजन्यपूर्वक और मेरी सुविधाका खयाल करके मुझे सभी मानपत्रोंकी थैलियाँ पहले ही सुलभ करा दी थीं। इस समामें आनेके पूर्व ही मैं इन मानपत्रोंको ध्यानपूर्वक पढ़ गया हूँ और उनमें से एकमें बिलकुल ठीक ही कहा गया है कि मैं जफनाके नवयुवकोंके कारण ही लंका आया ।

लंका आकर लंकावासियोंके असीम आतिथ्यका उपभोग करनेके बाद मैं यही कह सकता हूँ कि मेरा मन आपके इस सुन्दर देशकी यात्राकी सुखदतम स्मृतियोंसे भरा हुआ है।