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भाषण : महिन्द कालेज, गैलेमें

संघर्ष कर रही हैं, किन्तु साथ ही इसी अभावके कारण आत्मिक दृष्टिसे प्रतिदिन प्रगति भी कर रही हैं। मानव-जातिके एक महानतम शिक्षक और आप सबके हृदयमें एकमात्र सम्राटके रूपमें प्रतिष्ठित उस व्यक्तिने किसी मानव-निर्मित भवनमें बैठकर नहीं, बल्कि एक विशाल वृक्षकी छायामें बैठकर दुनियाको अपना जीवन्त सन्देश सुनाया था। और यह कहनेकी घृष्टताके लिए आप मुझे क्षमा करेंगे कि इस तरहकी महान संस्थाको ऐसी शिक्षा देनी चाहिए और इस ढंगसे देनी चाहिए कि उसका लाभ लंकाके प्रत्येक बालक और बालिकाको मिल सके ।

मैंने इतने ही दिनोंमें यह देख लिया है कि भारतकी तरह इस देशमें भी शिक्षाको उत्तरोत्तर अधिकाधिक व्ययसाध्य बनाया जा रहा है। नतीजा यह है कि यह गरीब लड़कोंकी पहुँचसे परे हो गई है। हम सबको सावधान हो जाना चाहिए और ऐसी गम्भीर भूल करनेसे बचना चाहिए, अन्यथा हम भावी पीढ़ियोंके धिक्कारके पात्र होंगे। उस उद्देश्यकी प्राप्तिके लिए मैं सबसे ज्यादा जोर इस बातपर दूंगा कि आरम्भसे अन्ततक सारी शिक्षा सिंहली भाषामें ही दी जानी चाहिए। मेरा निश्चित मत है कि किसी भी राष्ट्रके बच्चोंके लिए विदेशी भाषामें शिक्षा ग्रहण करना आत्मघातके समान है। यह चीज उन्हें उनके जन्मसिद्ध अधिकारसे वंचित करती है। विदेशी माध्यमका मतलब है बच्चोंपर अनुचित बोझ लादना, और यह उनकी मौलिक चिन्तनकी समस्त क्षमता समाप्त कर देता है। यह उनके विकासके मार्ग में बाधक होता है और उन्हें अपने देश-समाजसे काटकर अलग कर देता है। इसलिए मैं इसे राष्ट्रके लिए बहुत बड़े दुर्भाग्यकी बात मानता हूँ। मैं आपसे एक बात और कहना चाहूँगा । संस्कृत भारतकी मातृ-भाषा रह चुकी है, और चूंकि आपने सारी धार्मिक शिक्षा उस व्यक्तिके उपदेशोंसे ग्रहण की है जो खुद एक सच्चा भारतीय था और जिसने संस्कृत साहित्यसे प्रेरणा ग्रहण की थी, इसलिए संस्कृतको एक ऐसी भाषाके रूपमें अपने पाठ्यक्रममें स्थान देना बिलकुल उचित है जिसका अध्ययन गहराईसे किया जाये। इस तरहकी संस्थासे मैं यह अपेक्षा करूंगा कि वह सिंहलीमें ऐसी पाठ्यपुस्तकें तैयार करे जिनमें प्राचीन ज्ञान-विज्ञानकी उत्तम बातोंका समावेश हो और जो लंकाके सारे बौद्ध समाजके लिए सुलभ हों ।

मुझे आशा है कि आप ऐसा नहीं समझते होंगे कि मैं आपके सामने कोई ऐसा लक्ष्य रख रहा हूँ जिसे प्राप्त ही नहीं किया जा सकता । इतिहासमें मैंने ऐसे उदाहरण भी देखे हैं जब शिक्षकोंने मातृभाषाकी गरिमा और लुप्तप्राय प्राचीन ज्ञान-विज्ञानके गौरवको पुनः प्रतिष्ठित करनेके लिए भगीरथ प्रयत्न किये हैं।

मुझे यह देखकर सचमुच बड़ी प्रसन्नता हुई है कि आप लोग क्रीड़ा-व्यायामकी ओर समुचित ध्यान दे रहे हैं। खेल-कूदमें आपने जो विशेष स्थान प्राप्त करके दिखाया है, उसके लिए मैं आपको बधाइयाँ देता हूँ। मैं नहीं जानता कि आपका कोई देशी खेल-कूद है या नहीं। लेकिन, अगर यह हकीकत हो कि इस पवित्र भूमिपर क्रिकेट और फुटबालका चलन होनेसे पहले आपके लड़के कोई खेल नहीं खेलते थे तो मुझे घोर, बल्कि दुखद आश्चर्य होगा। यदि आपके अपने राष्ट्रीय खेल हों तो मैं आपसे अनुरोध