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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मगर यहाँ उस संस्थाका इतिहास तो बतलाना नहीं है । उस छोटी-सी संस्थामें भी मैंने देखा कि आपसमें झगड़े होते ही थे, लोग सेवा करनेकी अपेक्षा सत्ता हथियानेकी अधिक कोशिश करते थे; उनमें अपनेको बड़ा बनानेकी जितनी चाह थी, उतनी अपनेको मिटा देनेकी नहीं। और इस पूर्वज संस्थामें भी इन १२ वर्षोंसे में लगातार देखता आ रहा हूँ कि स्वार्थ सिद्धि की और सत्ता हथियानेकी ही कोशिश लगातार दिखाई पड़ती है। हमारी तरह आपके लिए भी अपना अस्तित्व बनाये रखने और प्रगति करनेके लिए यह नितान्त आवश्यक और अपरिहार्य है कि आत्म-त्याग, आत्म-संयम और अपनेको मिटा देनेकी चाह हमारे अन्दर पैदा हो, क्योंकि हम भी अभी खुद अपने पैरों खड़े होनेकी कोशिशमें ही हैं, हमें भी आत्म-विकास और स्वराज्यकी योग्यताके अपने दावे सिद्ध कर दिखाने हैं।

मैं यह दावा नहीं करता कि यहाँ आनेपर इन दो-चार दिनोंमें ही मैंने आपके यहाँकी राजनीति समझ ली है और आपकी कांग्रेसकी अन्दरूनी हालत मैं जान गया हूँ । मुझे पता नहीं कि वह कितनी सबल और लोकप्रिय है। मैं तो यही आशा कर सकता हूँ कि वह सबल और लोकप्रिय होगी। आशा है कि अभी-अभी मैंने जिन दोषोंका उल्लेख किया वे आपमें न होंगे। मैं बखूबी जानता हूँ कि सत्तारूढ़ शक्तियोंसे लोहा लेना और सरकारसे और खासकर विदेशी सरकारके अपने पूर्ण विकास, अपनी आत्माभिव्यक्तिकी कोई गुंजाइश न छोड़नेवाली सरकारके खिलाफ अखाड़े में उत- रना बड़ा ही रोचक काम है और आप जानते ही हैं कि मैं इसका खूब मजा ले चुका हूँ। लेकिन आखिर मैं इस नतीजेपर भी पहुँचा हूँ कि स्वराज्य और सहज आत्म-विकास कोई ऐसी चीजें तो हैं नहीं जो दूसरा कोई हमसे ले सके, या हमें दे सके। यह तो सच है कि हमारे भाग्य-विधायक लोग -- आज जिनके हाथों हमारे भाग्यका निबटारा होता मालूम पड़ता है, वे लोग - अगर सहानुभूति रखें, हमारी महत्वाकांक्षाओं- को समझें, हमारे अनुकूल हों तो बेशक हमारे लिए उन्नति करना आसान होगा। मगर आखिर स्वराज्य निर्भर करता है हमारी ही आन्तरिक शक्तिपर, बड़ी से बड़ी कठि- नाइयोंसे जूझनेकी हमारी सामर्थ्यपर। सच पूछो तो ऐसा स्वराज्य जिसे पानेके लिए और सुरक्षित रखनेके लिए अविराम प्रयत्न दरकार न हो वह स्वराज्य, स्वराज्य कह लानेके काबिल ही नहीं। मैंने इसीलिए अपनी कथनी और करनीके जरिये यह दिखाने की कोशिश की है कि राजनीतिक स्वराज्य -- अर्थात् विशाल जन समुदायका स्वशासन एक-एक व्यक्तिके अलग-अलग व्यष्टि-परक स्वराज्यसे कोई बेहतर चीज नहीं है और इसलिए उसे पानेके लिए ठीक वे ही साधन दरकार हैं जो व्यष्टि-परक स्वराज्य या स्व-शासनके लिए दरकार हैं। और जैसा कि आपको भी मालूम है यही आदर्श मैंने हिन्दुस्तानमें, मौके-बेमौके, हर जगह, जनताके सामने रखनेकी कोशिश की है, जिससे अकसर शुद्ध राजनीतिक प्रवृत्तिवाले लोग चिढ़ भी जाते हैं।

मैं उस राजनीतिक विचारधाराका माननेवाला हूँ जिसके प्रधान गोखले थे । मैंने उनको अपना राजनीतिक गुरु कहा है, और वह इसलिए नहीं कि उनकी हरएक बातको, उनके हर कार्यको, मैंने स्वीकार कर लिया था या आज भी करता हूँ, बल्कि