पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 35.pdf/३२५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१९७. पत्र : आश्रमके बालकोंको

२१ नवम्बर, १९२७

कैण्डी शहरकी अपनी स्वाभाविक सुन्दरता इतनी श्रेष्ठ है कि उसे देखते हुए मन थकता ही नहीं। सारा प्रदेश छोटी-छोटी पहाड़ियों, वनस्पति और हरियालीसे इतना भरपूर है कि कहीं कोई सूखी जगह तो नजर ही नहीं आती। ऐसे स्थानमें घूमना मुझे बहुत भाया । काकासाहब कुछ कामकी बात कह रहे थे इसलिए मेरे कान वहाँ थे किन्तु आँखें तो ईश्वरकी इस लीलाको ही देखनेमें निमग्न थीं । सोचता हूँ कि [प्रकृतिके ] इन विशाल मन्दिरोंके होते हुए भी ईश्वरका ध्यान करनेके लिए लोग लाखों अथवा करोड़ों रुपया खर्च करके [ कृत्रिम ] विशाल मन्दिरोंका निर्माण क्यों करवाते है ? इन मन्दिरोंसे क्या सचमुच धर्मकी कोई पुष्टि हुई है? इस प्रश्नपर तुम लोग विचार करना और अपना निर्णय मुझे बताना ।

[ गुजरातीसे ]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई

१९८. पत्र : वि० ल० फड़केको

सोमवार [२१ नवम्बर, १९२७]

[१]

भाईश्री ५ मामा,

तुम्हारा पत्र मिला। जब मुझे तुम्हारा 'वरतेज' वाला लेख पढ़नेको मिला उस समय तो तुमने उसे प्रकाशित करनेकी इच्छा व्यक्त नहीं की थी न ? मुझे तो मालूम ही नहीं कि मीठूबाईका भाषण छप गया है। किन्तु यह सही है कि बाढ़-पीड़ितोंसे सम्बन्धित लेख सीधे प्रेसको भेज दिया गया था । यदि वरतेजवाली टिप्पणी में कुछ विशेषता थी तो उसपर 'विशेष' लिखकर उक्त टिप्पणी सीधे मुझे भेजनी चाहिए थी । पंचमहालके अन्त्यजोंमें दौरा करना उचित हो तो क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि यह कार्य तुम स्वयं ही कर सकते हो ? किन्तु उनके बीच घूमना-फिरना भी तो आना चाहिए न ? नानाभाईसे विनती करते रहो । यदि तुम काकाको लिखोगे तो वे भी

  1. १. डाककी मुहरसे।