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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खादीके लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है और उसीके लिए जीते हैं। मैं ऐसी कल्पना कर ही नहीं सकता कि ऐसे लोग चरखा संघको टूटने देंगे। विशेषता इसी में है कि किसी संस्थामें रहनेवाले यही प्रवृत्ति पैदा करें कि अगर दूसरे लोग बेवफा निकलें तो भी वे स्वयं तो अपनी संस्थामें अश्रद्धा न रखते हुए अंततक वफादार ही रहेंगे और उसे चलाते जायेंगे। इसमें तो मुझे लेशमात्र भी शंका नहीं है कि चरखा संघमें ऐसे सेवक हैं।

पर जो उत्पन्न होता है, उसका नाश अवश्य होता है। इस न्यायसे किसी दिन चरखा संघका नाश भी संभव है। सभी प्रकारके नाश हानिरूप नहीं होते। शुद्ध प्रवृत्तिका नाश महान परिवर्तन के रूप में होता है। जब हम छोटा मन्दिर छोड़कर बड़ा बनाते हैं तो मानते हैं कि मन्दिरका उद्धार हुआ है और बात है भी यही । इसी प्रकार मेरी अनन्य श्रद्धा है कि जब चरखा संघका लय होगा तो किसी महान संस्थामें लय होगा ।

चरखा संघमें एक कौड़ी भी देनेवालेका अधिकार अक्षय है। चरखा संघको दानियोंकी सम्मतिके बिना बन्द नहीं किया जा सकता, यानी अगर चरखा संघके द्रव्यका उपयोग खादीके सिवा किसी दूसरे काममें किया जाये तो इसमें दानियोंकी सम्मति होनी चाहिए। अगर कोई कार्यकर्त्ता स्वेच्छापूर्वक चरखा संघके द्रव्य या नामका दुरुपयोग करे तो चन्दा देनेवालोंमें से कोई भी उसका हाथ पकड़ सकता है। जो संस्था दानसे चलती है वह सार्वजनिक है और उसकी सुव्यवस्थापर सिर्फ दानियोंका ही नहीं बल्कि सारी जनताका हक है । यह सीधी-सादी बात सभी नहीं जानते; और जो जानते भी हैं या तो निष्क्रिय होते हैं अथवा स्वार्थी । इसलिए बहुत-सी संस्थाओंमें बेईमानी चलती है और पैसेका दुरुपयोग होता है। पर इसके लिए जवाबदेह है केवल सर्वसाधारण जनता, जहाँ समाज सोया हुआ, आलसी, बेफिक या स्वार्थी है वहाँपर दंमी, लुच्चे वगैरह्की बन आती है और वे मनमानी करने लगते हैं।

अब दूसरा सवाल लें ।

यह बात बिलकुल ठीक है कि बिहारकी खादी और बंगालकी खादीके दामों में फर्क है। पर उसका कारण यह नहीं है कि दलाल लोग बीचमें नफा खाते हैं। बिहार और बंगालकी कार्यपद्धतिमें कुछ फर्क है और इससे बंगालमें खादी पैदा करनेका खर्च अधिक आता है। पर मुख्य कारण तो यह है कि बंगालमें बुननेवालों और कातनेवालोंको कुछ अधिक देना पड़ता है। बंगालकी संस्थाओंके ऊपर भी चरखा संघकी देखरेख और अंकुश तो है ही। खादी कार्य है ही ऐसा कि उसमें अभी हालमें तो अलग-अलग प्रान्तोंमें अलग-अलग भाव रहेंगे। गुजरातकी खादी शायद बंगालसे भी मँहगी होगी। बिहारसे तो महँगी है ही। इसका कारण यह नहीं है कि बीचमें कोई दलाली खा जाता है। राजपूतानेकी खादी शायद बिहारसे भी सस्ती है। तमिलनाडुकी कितने ही प्रकारकी खादी तो निश्चय ही सस्ती है। मैं इसमें कोई परेशानीकी बात नहीं देखता । खादी- की मारफत हम गरीबोंको उनकी अपनी ही जगहपर निभाना चाहते हैं। इसमें किसी जगह कम खर्च आयेगा और किसी जगह अधिक। हमें खयाल इसीका रखना चाहिए