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१८३. भाषण : नेगोम्बोमें

१७ नवम्बर, १९२७

अध्यक्ष महोदय और मित्रो,

आपने मुझे जो सुन्दर और कलात्मक अभिनन्दनपत्र भेंट किया है उसके लिए मैं आपका हृदयसे आभार मानता हूँ । जबसे मैं आपके इस सुन्दर द्वीपमें आया हूँ मुझे हर तरफसे स्नेह ही स्नेह प्राप्त हो रहा है और आपने मुझे इस मनोरम स्थान पर बुलाकर तथा अभिनन्दनपत्र भेंट करके इस स्नेहमें और वृद्धि कर दी है। आशा है कि आपके बीच मेरे जो देशभाई रह रहे हैं वे शान्ति और सद्भावपूर्वक रह रहे हैं। और आपमें से जो लोग भारतसे आये हैं, उनसे मैं कहना चाहता हूँ कि आप अपनेको भारतीय संस्कृति और परम्पराका प्रतिनिधि जानकर तदनुसार आचरण करें इस द्वीपके रहनेवाले आप लोगोंसे मैं चाहता हूँ कि आपको जब भी इनमें कुछ बुराई नजर आये, तब आप इन्हें अपना निकटतम पड़ोसी जानकर उसे सहन कर लें ।

जिस प्रकार कि आप लोगोंने मुझे सहयोग दिया है और मेरी यात्रा सफल बनाई है यदि उसी तरह आप आपसमें सहयोगके साथ रहते रहे तो मैं अपनी बात- चीतके अन्तमें अपने आपको एक प्रसन्न और सौभाग्यशाली व्यक्ति समदूंगा। यह देखकर मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ कि आप, लंकाके सत्कारशील लोग, जो विनम्र उद्देश्य लेकर मैं यहाँ आया हूँ उसे उपयोगी और आवश्यक समझते हैं । वास्तवमें मुझे इससे ज्यादा आश्चर्य तो तब होता जब आप उन लाखों लोगोंको करुण पुकार सुनकर भी अपने कर्त्तव्यको न निभाते -- उन लाखों लोगोंकी पुकार जिनके बारेमें हरेक व्यक्ति स्वीकार करेगा कि वे अध-भूखोंकी स्थितिमें जीवन बिता रहे हैं। अभिनन्दनपत्रके लिए मैं आपको एक बार और धन्यवाद देता हूँ ।

[ अंग्रेजीसे ]
सीलोन डेली न्यूज, १८-११-१९२७





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