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१८२. खादीके सिले-सिलाये कपड़े

एक पारसी मित्रने खादीके सिले-सिलाये कपड़ोंके सम्बन्धमें कुछ सुझाव भेजे हैं। मैं उनको नीचे दे रहा हूँ :

बाजारमें जैसे खादीकी बनी टोपियाँ मिल जाती है, वैसे ही हिन्दुस्तानी और अंग्रेजी फैशनकी बनी कमीजें और बण्डियाँ भी क्यों न रखी जायें ? बेशक खादीके दुकानदारोंमें इतनी सूझ-बूझ अवश्य होनी चाहिए कि वे मालूम कर सकें कि किस फिल्मके सिले-सिलाये कपड़े जल्दी बिक सकते हैं और उन्हें वे खादीसे तैयार करा लें।

खादीके दुकानदारोंको इस सुझावपर विचार करना चाहिए। यह खादीको सस्ता बनानेका और शहरोंमें रहनेवालोंको रोजी देनेका एक साधन जुटा देगा। खादी सीनेवाले दरजीमें यदि इतनी देशभक्ति हो कि बाजार-भावसे कुछ कम ही मजदूरी ले, तो इस प्रकार होनेवाली बचतसे उस कपड़े में लगी खादीकी कीमत घट जायेगी । कुमारी मीटूबहन पेटिटने कुछ बड़े सुन्दर कौशलपूर्ण नमूने तैयार किये हैं जिनको वे खादीपर बना देती हैं और इसके लिए वे जो कीमत लगाती हैं वह उनको अपने गिने-चुने ग्राहकोंसे खुशी-खुशी मिल जाती है, क्योंकि ग्राहक जानते हैं कि इसके जरिये वे खादीको ही नहीं, उन लड़कियोंको भी सहारा दे रहे हैं जिनको खादीके कामसे ज्यादा अच्छी और ईमानदारीकी दूसरी कोई रोजी नहीं मिल सकती थी। बिहार और तमिलनाडु में मैने ऐसे दरजी देखे हैं जो सिर्फ खादीकी सिलाई करते हैं। इसलिए कोई कारण नहीं कि शिक्षित लोग भी खादीकी सेवा करनेके साथ-साथ अपनी रोजीके लिए भी खादीकी सिलाईका काम क्यों न शुरू करें।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १७-११-१९२७