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वर्णाश्रम और उसका विरूपीकरण

ही। लेकिन तब उसका यह प्रभाव दण्डके रूपमें फलित होगा। इसलिए अगर हमें विनाशसे बचना है तो हमें इस नियमको स्वीकार करना होगा। और यह देखते हुए कि इस समय हम अपने ऊपर 'शक्तिशाली ही जीवित रहेगा ' का मानवेतर नियम लागू करनेमें लगे हुए हैं, हमारे लिए यह अच्छा होगा कि हम सब अपनेको एक ही वर्ण - अर्थात् शूद्र वर्णका मान लें, भले ही हममें से कुछ लोग शिक्षा दे रहे हों, कुछ लोग सैनिकका धन्धा कर रहे हों और कुछ लोग वाणिज्य-व्यापारमें लगे हुए हों। मुझे याद है कि १९१५में नेल्लोरमें सामाजिक सम्मेलनके अध्यक्षने कहा था कि पहले सब लोग ब्राह्मण थे, और आज भी सभीको ब्राह्मण ही मानना चाहिए तथा दूसरे वर्णोंको समाप्त कर देना चाहिए। यह मुझे उस समय भी एक विचित्र डरावना सुझाव लगा था और आज भी लगता है। यदि सुधारको शान्तिपूर्ण ढंगसे होना है तो तथाकथित ऊँचे लोगोंको अपनी ऊँचाइयोंसे नीचे उतरना पड़ेगा । युगोंसे जिन लोगोंको इस बातकी शिक्षा दी गई है कि वे समाजकी सीढ़ीमें अपनेको सबसे निचले वर्गका मानें, वे सहसा ही तथाकथित उच्च वर्गीकी योग्यताएँ नहीं प्राप्त कर सकते । अतः वे केवल खून-खराबेके जरिये ही, दूसरे शब्दोंमें स्वयं समाजको ही नष्ट करके दशक्ति और सत्ता प्राप्त कर सकते हैं। मेरे सामने जो पुनर्रचनाकी योजना है उसमें अस्पृश्योंका कोई उल्लेख नहीं है क्योंकि मैं वर्णके नियममें या हिन्दू धर्ममें अन्यत्र अस्पृश्यताके लिए कोई स्थान नहीं पाता । वे अन्य सभी लोगोंके साथ शूद्र वर्णमें समाहित हो जायेंगे। इन्हीं में से अन्य तीन वर्ण धीरे-धीरे शुद्ध होकर और दर्जेमें बराबरी रखते हुए, हालांकि उनके धन्धे भिन्न होंगे, निकलेंगे । ब्राह्मण बहुत थोड़े होंगे। उनसे भी कम क्षत्रिय वर्गके लोग होंगे जो भाड़ेके टट्टू नहीं होंगे या आजके जैसे निरंकुश शासक नहीं होंगे, बल्कि राष्ट्रके सच्चे रक्षक और न्यासी होंगे जो उसकी सेवामें अपने प्राणोंकी आहुति दे देंगे। सबसे कम शूद्र होंगे क्योंकि एक सुव्यव- स्थित समाजमें साथी मानवोंसे कमसे-कम श्रम कराया जायेगा। सबसे ज्यादा संख्या वैश्योंकी होगी। इस वर्णमे सभी धंधे शामिल होंगे --किसान, व्यापारी, शिल्पी आदि । - । यह योजना कल्पनादेशकी लग सकती है, तथापि लड़खड़ाते हुए कदमोंसे विशृंखलताकी तरफ बढ़ते हुए समाजकी निर्बाध स्वच्छन्दताका जीवन जीनेकी अपेक्षा मैं अपनी कल्पनाके इस स्वप्न लोकमें रहना ज्यादा पसन्द करता हूँ । व्यक्ति भले ही अपनी कल्पनाके संसारको समाज द्वारा स्वीकृत होते न देख सके लेकिन उस कल्पनामें रहनेकी छूट उसे अवश्य है। किसी भी सुधारकी शुरूआत व्यक्तिसे ही हुई है और जिस सुधारमें अपनी अन्दरूनी शक्ति रही है और जिसके पीछे एक सशक्त आत्माका बल रहा है उसे उस सुधारकके समाजने स्वीकार कर लिया है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १७-११-१९२७