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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अन्तर्जातीय विवाहका निषेध भी वर्णके नियमकी स्वीकृतिका आवश्यक अंग नहीं है। यह सम्भव है कि ये निषेध वर्णके परिरक्षणके लिए आरम्भ किये गये हों; निर्बन्ध विवाहके विरुद्ध प्रतिबन्ध तो आत्म-संयमपर आधारित किसी भी जीवन-योजनामें आवश्यक हैं । निर्बन्ध सहभोजके ऊपर प्रतिबन्ध स्वास्थ्यके विचारसे या आदतोंमें मिन्नताके कारण लगे हैं। लेकिन पहले इन प्रतिबन्धोंकी अवहेलना करनेपर किसी सामाजिक या कानूनी दण्डका विधान नहीं था और न इससे कोई वर्ण-भ्रष्ट होता था, और जो ज्यादा बड़ी चीज है वह यह कि अब मी इनकी अवहेलनाके ऐसे कोई परिणाम नहीं होने चाहिए ।

मूलतः वर्ण चार थे। यह एक बुद्धिमत्तापूर्ण और समझ में आने योग्य विभाजन था। लेकिन संख्या वर्णके नियमका कोई अंग नहीं है। एक दर्जी जरूरी नहीं कि लोहार बन जाये, हालांकि दोनोंको वैश्यके वर्गमें रखा जा सकता है और रखना चाहिए ।

तमिलनाडु में जो सबसे जोरदार आपत्ति उठाई गई वह यह थी कि मेरी व्याख्याके अन्तगंत वर्णं कितना ही अच्छा और अहानिकर प्रतीत होता हो, इस व्यवस्थाको या तो किसी भिन्न नामसे चलाया जाये और नहीं तो इसे बिलकुल समाप्त कर दिया जाये क्योंकि वर्ण-व्यवस्था नामसे दुर्गन्ध आती है। आपत्ति करनेवालोंको मय था कि मेरी व्याख्याकी तो अवहेलना की जायेगी लेकिन वर्तमान हिन्दू-धर्ममें जो भयंकर असमानताएँ और अत्याचार प्रचलित हैं उनका वर्णकी आड़में समर्थन करनेके लिए मेरे कथनोंका खुलकर हवाला दिया जायेगा। उन्होंने यह भी कहा कि सर्वसाधारणके लिए तो जाति और वर्ण पर्यायवाची शब्द हैं, और जबकि वर्णका संयम कहीं नहीं बरता जाता, जातिका अत्याचार सभी जगह व्याप्त है। इन सब आपत्तियोंमें निःसन्देह बहुत बल है। लेकिन ये ऐसी आपत्तियाँ हैं जिन्हें ऐसी बहुत-सी भ्रष्ट हो चुकी व्यव- स्थाओंके खिलाफ उठाया जा सकता है जो किसी समय अच्छी थीं। सुधारकका काम यह है कि वह किसी व्यवस्थाकी जाँच करे, और यदि उसके दोषोंको उस व्यवस्थासे अलग किया जा सकता है तो वह उस व्यवस्थामें सुधार लानेका प्रयत्न करे। किन्तु वर्ण एक मानव-निर्मित व्यवस्था मात्र नहीं है, यह एक ऐसा जीवन-नियम है जिसे उसने खोजा है। अतः इसे दरकिनार नहीं किया जा सकता। इसके छिपे हुए अर्थों और सम्भावनाओंका पता चलानेकी कोशिश की जानी चाहिए, और समाजके भलेके लिए उसका इस्तेमाल करना चाहिए। हमने देखा है कि इस नियम या व्यवस्थामें कोई बुराई नहीं है बल्कि बुराई श्रेष्ठता और हीनताके उस सिद्धान्तमें है जिसे इसमें ऊपरसे जोड़ दिया गया है।

यह भी सवाल उठता है कि आजकलके जमानेमें, जबकि सभी चारों वर्ण या उपवर्ण सभी प्रतिबन्धोंको तोड़ रहे हैं, नियम-संगत या नियम विरुद्ध तरीकोंसे अपने भौतिक सुख-साधनोंकी अभिवृद्धि कर रहे हैं और जबकि कुछ वर्ण या उपवर्ण अन्य वर्णोंपर श्रेष्ठताका दावा करते हैं और दूसरे वर्ण, जैसा कि उचित है, उस दावेको चुनौती देते हैं, तब इस नियमको कार्यान्वित किस प्रकार किया जाये। अब बात

यह है कि भले ही हम इस नियमकी उपेक्षा करें वह अपना प्रभाव तो दिखायेगा