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वर्णाश्रम और उसका विरूपीकरण

हैं और सम्माननीय हैं। एक भंगीका वही दर्जा है जो एक ब्राह्मणका है। क्या मैक्समूलरने ही यह नहीं कहा है कि किसी भी धर्मकी अपेक्षा हिन्दू-धर्ममें जीवन कर्त्तव्य मात्र है --न उससे ज्यादा, न कम ।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अपने विकासकी किसी अवस्थामें हिन्दू धर्म में भ्रष्टाचार आ गया और ऊँच-नीचकी भावनाने उसमें प्रवेश करके उसे दूषित कर दिया। लेकिन असमानताका यह विचार मुझे यज्ञकी उस भावनाके बिलकुल विरुद्ध प्रतीत होता है जो हिन्दू-धर्मकी प्रत्येक चीजमें प्रधान है। एक ऐसी जीवन-योजनामें जो अहिंसापर आधारित है - वह अहिंसा जिसका सक्रिय रूप सभी जीवोंके लिए विशुद्ध प्रेमभाव है -- किसी एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्गपर श्रेष्ठता स्थापित करनेकी कोई गुंजाइश ही नहीं है ।

वर्णके इस नियमके विरुद्ध यह नहीं कहा जा सकता कि वह जीवनको नीरस बना देता है और उसमें महत्त्वाकांक्षाके लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रहने देता । मेरी रायमें वर्णका नियम ही हम सबके लिए जीवनको जीने योग्य बनाता है, और उस लक्ष्यको पुनः प्रतिष्ठित करता है जो जीवनको सार्थक बनाता है, अर्थात् आत्म- ज्ञान प्राप्त करनेका लक्ष्य । आज हम उन्हीं भौतिक उद्देश्योंके बारे में सोचते और प्रयत्न करते प्रतीत होते हैं जो अपनी प्रकृतिसे अस्थायी हैं, और ऐसा हम उस एक चीजको बिलकुल भुलाकर करते हैं जो सबसे जरूरी है।

यदि मुझसे कहा जाये कि वर्णकी जो व्याख्या मैंने की है उसका समर्थन हिन्दू आचरणकी संहिता अर्थात् स्मृतियोंसे नहीं होता, तो मेरा उत्तर है कि जीवनके बुनि- यादी और अपरिवर्तनीय सिद्धान्तोंपर आधारित आचरण संहिताएँ तो समयके साथ ज्यों-ज्यों हम नये-नये अनुभव प्राप्त करते हैं, नये-नये पर्यवेक्षण करते हैं, बदलती जाती हैं। स्मृतियोंके कई ऐसे नियमोंको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत करना सम्भव है जिन्हें हम अनिवार्य नहीं मानते और पालन करने योग्य भी नहीं समझते । अपरिवर्तनीय सिद्धान्त बहुत कम हैं और सभी धर्मोमें समान हैं। इन सिद्धान्तोंको लागू करनेकी दृष्टिसे धर्मोमें भिन्नता है। और किसी भी धर्ममें इन सिद्धान्तोंको कार्यान्वित करने- के जो भी तरीके हो सकते हैं उन सभी तरीकोंको आजमाया नहीं जा चुका है। विचारोंके विस्तार तथा नये तथ्योंके ज्ञानके साथ उनका भी विस्तार होता जाता है। बल्कि मेरा तो विश्वास है कि मानवके अनुभवके विकासके साथ-साथ शब्दोंके अर्थ मी विकसित होते हैं। प्राचीन ऐतिहासिक कालमें यज्ञ, सत्य, अहिंसा, वर्णाश्रम आदि शब्दोंसे जो अर्थ ध्वनित होते थे, आज उनकी अपेक्षा ज्यादा व्यापक अर्थ ध्वनित होते हैं । इस सिद्धान्तको वर्ण शब्दपर लागू करें तो उसकी चालू व्याख्यासे जिसके बारेमें हम यह मान रहे हैं कि वह युगकी आवश्यकताओं और नैतिकताकी हमारी कल्पनासे असंगत है. अपने आपको बँधा हुआ मानना जरूरी नहीं है, बल्कि बँधा हुआ मानना मूर्खतापूर्ण और गलत है। इसके विपरीत करना आत्मघात होगा ।

ऊपर बताये गये ढंगसे वर्णपर विचार करनेपर हम देखते हैं कि उसमें और आजकी जाति प्रथामें कोई समानता नहीं है। इसी तरह अन्तर्जातीय भोज या