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१८०. एक उद्धरण

श्री रिचर्ड ग्रेगने, जिनके नामको 'यंग इंडिया' के पाठक 'तकली स्पिनिंग पुस्तिकाके सह-लेखकके रूपमें जानते हैं, एक पुरानी पुस्तकसे निम्नलिखित उपयोगी उद्धरण भेजा है। इसे उन्होंने अपने शोधकार्यके दौरान ढूंढ निकाला है ।[१]

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १७-११-१९२७

१८१. वर्णाश्रम और उसका विरूपीकरण

पाठक एक अन्य स्तम्भमें ब्राह्मण-अब्राह्मण प्रश्नपर श्रीयुत नाडकर्णीका दिलचस्प पत्र[२] देखेंगे। उन्होंने मुझसे कहा है कि मैंने तमिलनाडुके अपने हालके दौरेमें भाषणों- में वर्णाश्रमके सम्बन्धमें अपने जो विचार प्रकट किये हैं उन्हें और विस्तारसे स्पष्ट करूँ और मैं वैसा खुशीसे कर रहा हूँ। मेरे भाषण तो कमोबेश पूरेके-पूरे इन स्तम्भोंमें प्रकाशित हो चुके हैं।

इस प्रश्नका विवेचन अच्छी तरह हो सके इसलिए मैं पहले तो यह स्पष्ट कर दूं कि मैं उस शूद्रकी प्रसिद्ध कथाको विचार योग्य नहीं मानता जिसके बारेमें कहा जाता है कि उसका सर रामने इस कारण काट दिया था कि उसने संन्यासी बननेकी घृष्टता की थी। मैं शास्त्रोंका शाब्दिक अर्थ नहीं करता; मैं उन्हें इतिहासके रूपमें तो निश्चित ही नहीं पढ़ता । शम्बूकका सर काट लेनेकी कथा रामके सामान्य चरित्रसे मेल नहीं खाती । विभिन्न रामायणोंमें जो कुछ भी कहा गया हो, मैं अपने रामको किसी शूद्रका, या किसीका भी सर काटनेमें सर्वथा असमर्थ मानता हूँ । यदि शम्बूकको कथासे कुछ भी सिद्ध होता है तो यही कि जिस जमाने में इस कथाका जन्म हुआ उस जमानेमें शूद्रोंके लिए अमुक धार्मिक विधि-विधानोंका अनुष्ठान गम्भीर अपराध माना जाता था। शूद्र शब्दके यहाँ क्या अर्थ हैं इसके बारेमें हम अन्धकारमें हैं । मैंने पूरी कथाका अन्योक्तिके रूपमें भी अर्थ लगाये जाते सुना है। लेकिन इससे यह तथ्य नहीं बदल जाता कि हिन्दू-धर्मके विकासकी किसी अवस्थामें शूद्रोंके ऊपर कुछ अनुचित निषेध लागू थे। बस इतना ही है कि मुझे शम्बूकके कथित वधके लिए

  1. १. पद उद्धरण यहाँ नहीं दिया जा रहा है। यह १७९६ में रोममें प्रकाशित फ्रा पाओलिनो दा सैन बार्टोलोमियो लिखित पुस्तक ए वॉयेज टु द ईस्ट इंडीज के अंग्रेजी अनुवादमें से लिया गया था। अन्य चीजोंके अलावा, इसमें कहा गया था: "यह बात सचाईके साथ कही जा सकती है कि कताई, बुनाई और रंगाईमें भारतीय लोग संसारके सभी राष्ट्रोंसे अच्छे हैं। "
  2. २. पत्रके उद्धरणोंके लिए देखिए परिशिष्ट ६ ।