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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह बात सही है कि यह प्रक्रिया धीरे-धीरे होनेवाले परिवर्तनकी है,तब दो चीजें हैं जो स्वयं हमारे अन्दर घटती रहती हैं। एक तो है प्रतिक्षण एक निश्चित प्रयास, अविरत प्रयास की क्रिया; और दूसरी है हमें नवजीवन प्रदान करनेवाली उस नवजीवनदायी शक्तिकी -- जिसे में ईश्वर कहूँगा - सहायताके बिना अपनी निपट असहायताको निश्चित प्रतीति । इस प्रकार एक ओर तो वह सहायता है जिसे हम ईश्वरको कृपा कहते हैं और दूसरी ओर है मनुष्यका प्रयत्न, फिर वहप्रयत्नकितना ही तुच्छ क्यों न हो। ये दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ हो चलती रहती हैं।[१]

गांधीजीने इस सिलसिलेमें 'प्लिमथ ब्रदर' का जिक्र[२] किया. [ और कहा : ]

लेकिन जिस प्लिमथ ब्रदरसे में मिला[३] उनका तर्क था कि मानवीय प्रयत्न जैसी कोई चीज नहीं होती। यदि आप ईसाके सूली चढ़ाये जानेका तथ्य स्वीकार करते हैं तो सारा पाप बिलकुल समाप्त हो जायेगा। चूंकि मैं जानता था और ऐसे अनेक ईसाई मित्रोंसे मेरा बहुत निकटका सम्बन्ध था जो इस दिशामें निश्चित प्रयास कर रहे थे, इसलिए मैं चकित रह गया। मैंने उनसे पूछा, "लेकिन क्या आप गिरते नहीं ? उन्होंने उत्तर दिया, "गिरता तो हूँ, लेकिन मैं अपने इस विश्वाससे शक्ति प्राप्त करता हूँ कि ईसा मेरी ओरसे हस्तक्षेप करते हैं और मेरे सारे पाप धो डालते हैं । अब मैं आपको बताता हूँ कि वे क्वेकर मित्र भी जिन्होंने मुझे इस प्लिमथ ब्रदरसे मिलवाया था, कुछ कम चकित नहीं हुए। क्षमा याचना करनेके मतलब हैं कि हम फिरसे पाप न करें और क्षमा प्रदान किये जानेके मतलब हैं कि हममें सब प्रकारके प्रलोभनोंका प्रतिरोध करनेकी शक्ति हो । लगातार और अथक प्रयत्न करनेके बाद ही ईश्वर सुरक्षाकी दीवारके रूपमें हमारे बचावके लिए आता है, और हमारे भीतर इस बातकी निरन्तर बढ़ती हुई प्रतीति होती जाती है कि हम पाप नहीं करेंगे। मुझे याद है कि हक्सलेके साथ एक प्रसिद्ध विवादमें ग्लैडस्टनने कहा था कि जब ईश्वर निश्चित रूपसे हमपर कृपा करता है तब हम पाप करनेमें सर्वथा अक्षम हो जाते हैं। ग्लैडस्टनने कहा है कि ईसा तो जन्मसे ही पापसे सर्वथा मुक्त थे, लेकिन हम निरन्तर प्रयास करके ही वैसे बन सकते हैं। जबतक हमारे मनमें एक भी बुरा विचार आता रहता है तबतक हमें समझना चाहिए कि ईश्वरने हमें पूरी तरह क्षमा नहीं किया है या पूरी तरह हमपर कृपा नहीं की है।

[ यह पूछे जानेपर कि श्रद्धाके मामलोंमें गांधीजीकी स्थिति क्या समझौतेको स्थिति नहीं है, उन्होंने कहा : ]

जिस मित्रने यह आलोचना की है, मैं उनकी निश्चय ही सराहना करता हूँ लेकिन वह विश्वास करें कि मेरे लिए समझौतेका कोई सवाल नहीं हो सकता। मेरे

  1. १. इसके आगेका पाठ महादेव देसाई द्वारा लिखित और २२-१२-१९२७ के यंग इंडिया में प्रकाशित “ सीलोन मेमोयर्स " से लिया गया है।
  2. २. ईसाइयोंके ' प्लिमथ ब्रदरन' नामक एक सम्प्रदायका सदस्य ।
  3. ३. देखिए आत्मकथा, भाग २, अध्याय ११ ।