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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पढ़ा है। अगर आप मुझमें वैसा ही विश्वास रखते हों तो आपने मेरे बारेमें जो कुछ सुना है उसपर से भी मुझसे सवाल कर सकते हैं, और मैं आपको विश्वास दिलाता कि यदि आप मुझसे ऐसे सवाल भी करेंगे जिन्हें चन्द लोगोंकी आपसी बातचीत में भी अटपटे सवाल माना जा सकता है, तो भी मैं बुरा नहीं मानूंगा। हम इस सभाको बैठकखानेवाली गोष्ठी नहीं, बल्कि ऐसे मित्रोंकी आपसी बातचीत बना लें जो एक- दूसरेके और अधिक घनिष्ठ मित्र होने, और गलतफहमीका कोहासा मिटानेकी कोशिश कर रहे हैं।

आगे बोलते हुए महात्मा गांधीने एक भजनका जिक्र किया जो उन्होंने प्रिटोरियामें सुना था : जब कुहरेके बादल हट जायेंगे तब हम एक दूसरेको ज्यादा अच्छी तरह जान सकेंगे। " आइए, हम लोग देखें कि कहीं कोई कुहरेका बादल न रहने पाये ।

इसके बाद प्रश्नोंके लिए थोड़ी देरकी खामोशी छाई रही, और तब श्री जी० पी० विशर्डने पूछा कि मनुष्य अपने पापोंको क्षमा पा सकता है, इस सिद्धान्त के बारेमें आपका क्या विचार है। महात्मा गांधीने कहा :

यह वास्तवमें एक बहुत अच्छा प्रश्न है। यह एक बहुत पुराना सवाल है और हर पापीके मनमें स्वभावतः उठता है, और मैं मानता हूँ कि चूंकि मैंने अपने लिए जिसे मैं सामान्य मानता उससे कहीं ज्यादा बार पाप किया है -- निश्चय ही मैंने पाप करना कभी नहीं चाहा है - इसलिए मैं जानता हूँ कि क्षमा करनेको कितना कुछ पड़ा है। मैंने जो गम्भीर पाप किये हैं, एक बार नहीं, अनेक बार, इतनी बार कि कोई भी व्यक्ति अपने आपपर लज्जित हो उठे, उन पापोंकी मेरी आत्मस्वीकृति शायद आप लोगोंमें से कुछने पढ़ी हो । अतः स्वयं अपने सन्तोषके लिए भी मैंने इस सवालकी जाँच की है। हो सकता है कि हिन्दू विचारधारामें पालित-पोषित होनेके कारण अथवा हो सकता है कि कुछ जैन मित्रोंके साथ अपने घनिष्ठ सम्पर्कके कारण, यानी कि जिस हदतक जैन धर्मको हिन्दू धर्मसे अलग समझा जा सकता है -- जो भी वजह हो, मैं इस निष्कर्षपर आया हूँ -- मैं समझता हूँ कि अपनी इस उम्र में यही शब्द इस्तेमाल करना सबसे सुरक्षित है, हालाँकि सुधार तो कभी भी किया जा सकता है कि ईश्वरकी ओरसे क्षमा-जैसी कोई चीज नहीं होती, यानी उस प्रकारकी क्षमा जिसे हम लौकिक व्यवहारमें देखते-समझते हैं, उदाहरणार्थ जिस प्रकार कोई राजा अपनी प्रजाके अपराधोंको क्षमा करता है। मैं ईश्वरके नियमको शाश्वत और अपरि- वर्तनीय मानता हूँ। जहांतक मैं ईश्वरके उद्देश्यको समझ सका हूँ, ईश्वर और उसके नियमोंमें वैसा कोई भेद नहीं किया जा सकता जैसा कि हम राजाओं, भू-तलके राजाओं और उनके बनाये नियमोंमें भेद कर सकते हैं और करते हैं, और फिर भी कुछ है अवश्य जिसे क्षमाका नाम दिया जा सकता है और जो किसी अत्यन्त क्षमा- शील राजा द्वारा प्रदान की जा सकनेवाली किसी भी क्षमासे कहीं अधिक सुनिश्चित और श्रेष्ठ है, और वह क्षमा और कुछ नहीं एक नया हृदय है। यह ईश्वर द्वारा प्रदान की गई नई निश्चित आशा है जिसे कोई भी स्त्री-पुरुष तनिक भी इच्छा