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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पर आपका अपना जो गर्व है, उसके बावजूद मैं आपसे विनम्र बननेको कहूँगा और कहूँगा कि आप अपने मनमें सन्देहके लिए थोड़ी गुंजाइश रखें जिसमें, जैसा कि टेनिसनने अपनी कवितामें लिखा है, अपेक्षाकृत ज्यादा सत्य होता है। कहनेकी जरूरत नहीं कि “सन्देह " से उनका अभिप्राय किसी मिन्न चीजसे था । हममें से हर आदमी अपना जीवन जिये, और यदि हमारा जीवन ही सही जीवन है तो फिर जल्दबाजीका कारण ही कहाँ है? उसकी तो स्वतः प्रतिक्रिया होगी ।

आप लंकावासी युवक[१] मित्रोंसे मैं कहता हूँ : पश्चिमसे जो तड़क-भड़कवाली चीजें आपके पास आती हैं, उनसे आप चकाचौंघ मत हो जाइए। इस अस्थायी दिखावे- के कारण आपके पैर लड़खड़ा न जायें । बुद्धने आपसे कभी न भुलाये जानेवाले शब्दों में कहा है कि जीवनकी यह छोटी-सी अवधि एक अस्थायी छाया है, गुजर जानेवाली वस्तु है, और यदि आप आँखोंसे दिखाई पड़नेवाली चीजोंकी व्यर्थता समझ लेंगे, नित्य परिवर्तित होनेवाले पार्थिव शरीरकी व्यर्थता समझ लेंगे तो आपको परलोकमें सभी कुछ प्राप्त होगा, और इह लोकमें शान्ति प्राप्त होगी, ऐसी शान्ति जो बुद्धिकी समझसे परे है, और ऐसा आनन्द प्राप्त होगा, जिसका हमें कभी कोई आभास भी नहीं हुआ है। इसके लिए विलक्षण विश्वास, दिव्य विश्वासकी और हम अपनी आँखोंके सामने जो-कुछ देखते हैं, उस सबका त्याग करनेकी जरूरत है। बुद्धने और ईसाने और मुहम्मदने भी क्या किया ? उनका जीवन आत्मत्याग और सब-कुछ त्यागका जीवन था । बुद्धने सभी सांसारिक सुखोंका त्याग कर दिया, क्योंकि वे सारे संसारके साथ अपने सुखको बांटकर भोगना चाहते थे। ऐसा सुख सत्यकी खोजमें त्याग करने और कष्ट सहन करनेवाले ही प्राप्त कर सकते हैं। यदि मूल्यवान प्राणोंकी आहुति देकर एवरेस्टके शिखरपर पहुँचना और कुछ मामूली पर्यवेक्षण करना अच्छी चीज है, यदि ध्रुवोंपर एक झंडा गाड़नेके लिए एकके बाद एक अनेक प्राणोंका बलिदान करना गौरवकी वस्तु है, तो शक्तिशाली और अविनाशी सत्यकी खोजमें एक जीवन नहीं, करोड़ों जीवन नहीं, बल्कि असंख्य जीवन बलिदान करना कितने गौरवकी बात होगी? इसलिए जमीनसे अपने पैर मत उखड़ने दीजिए, अपने पूर्वजोंकी सादगीसे दूर मत हटिए। एक ऐसा समय आ रहा है कि जब वे लोग, जो आजकी अन्धी दौड़में पड़कर अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाते जा रहे हैं और मूढ़तावश ऐसा मान रहे हैं कि इस प्रकार वे जीवनमें जो कुछ सार है उसमें वृद्धि कर रहे हैं, संसारके सच्चे ज्ञानकी अभिवृद्धि कर रहे हैं, वे अपने कदम वापस लौटायेंगे और कहेंगे : यह हमने क्या किया ? " सभ्यताएँ आई हैं और चली गई हैं, और हम अपनी जिस प्रगतिपर इतना गवं करते हैं, उसके बावजूद मेरा मन पूछनेको होता है, होता है, "आखिर किसलिए ? " डार्विनके एक समकालीन, वैलेसने भी यही बात कही है। उसने कहा, शानदार आविष्कारों और अन्वेषणोंसे भरे इन पचास वर्षोंने मानव जाति की नैतिक ऊंचाईमें एक इंचकी भी वृद्धि नहीं की है। यही बात एक स्वप्नद्रष्टा और कल्पना- लोकमें विचरण करनेवाले व्यक्ति - टॉल्स्टॉय - ने भी कही । यही बात ईसाने

  1. १. वाई० एम० सी० ए० के सदस्योंमें ईसाई और बौद्ध नवयुवक दोनों शामिल थे।