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भाषण : बौद्धोंकी सभामें

गौतम स्वयं हिन्दुओंमें श्रेष्ठ हिन्दू थे। उनकी नस-नसमें हिन्दू धर्मकी सभी खूबियाँ भरी पड़ी थीं । वेदोंमें दबी हुई कुछ शिक्षाओंमें, जिनके सारको भुलाकर लोगोंने छायाको ही ग्रहण कर रखा था, उन्होंने जान डाल दी। उनकी महान हिन्दू भावनाने निरर्थक शब्दोंके जंजालमें दबे हुए वेदोंके अनमोल सत्योंको जाहिर किया । उन्होंने वेदोंके कुछ शब्दोंसे ऐसे अर्थ निकाले, जिनसे उस युगके लोग बिलकुल अपरि- चित थे और उन्हें हिन्दुस्तानमें इसके लिए सबसे अनुकूल वातावरण मिला । जहाँ- कहीं बुद्ध गये, उनके चारों ओर अहिन्दू लोग नहीं, बल्कि ऐसे हिन्दू विद्वान ही घिरे रहते थे जो स्वयं वेदोंके ज्ञाता थे। मगर बुद्धके हृदयकी तरह ही उनकी शिक्षा भी अत्यन्त व्यापक और सर्वग्राही थी और इसी कारण उनके मरनेके बाद भी वह जीवित रही, और संसार-भरमें फैल गई। और बुद्धका अनुयायी कहे जानेका खतरा उठाकर भी मैं इसे हिन्दू धर्मकी ही विजय कहता हूँ। उन्होंने हिन्दू धर्मको कभी अस्वीकार नहीं किया, केवल उसका आधार विस्तृत कर दिया। उन्होंने इसमें एक नई जान फूंक दी, इसको एक नया ही रूप दे दिया। मगर अब आगे जो-कुछ मैं कहूँगा उसके लिए आप क्षमा करेंगे। मैं आपसे यही कहना चाहता हूँ कि बुद्धकी शिक्षाओंको तिब्बत, लंका, चीन या बर्मा कोई भी देश पूरी तरह आत्मसात् नहीं कर पाया। मैं अपनी मर्यादा जानता हूँ। मैं बौद्ध धर्मका पंडित होनेका दावा नहीं रखता। बौद्ध- धर्मपर प्रश्नोत्तरमें शायद नालन्दा विद्यालयका कोई छोटा लड़का भी मुझे हरा देगा । मैं जानता हूँ कि यहाँ मैं बहुत विद्वान भिक्षुओं और गृहस्थोंके सामने बोल रहा हूँ, किन्तु अगर मैं अपने दिलका विश्वास आपसे न कहूँ तो मैं आपके सामने और अपनी अन्तरात्माके सामने झूठा ठहरूँगा ।

आप लोगों और हिन्दुस्तान के बाहरके बौद्धोंने बेशक बुद्धकी बहुत-सी शिक्षाएँ ग्रहण की हैं। मगर जब मैं आपके जीवनकी जाँच करता हूँ और लंका, बर्मा, चीन या तिब्बतके मित्रोंसे प्रश्न पूछता हूँ तो मैं आपके जीवनमें, और बुद्धके जीवनका जो मैं मुख्य भाग समझता हूँ, उसमें असंगतियाँ देखकर फेरमें पड़ जाता हूँ । अगर मेरी बातें आपको थका न रही हों तो मैं आपके सामने तीन खास बातें रखना चाहूँगा, जो मेरे दिमाग में अभी-अभी आई हैं। पहली चीज है ईश्वर कही जानेवाली एक सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिशाली नियतिमें विश्वास करना। मैंने यह बात अनगिनत बार सुनी है और बौद्ध धर्मकी भावनाको प्रकट करनेका दावा करनेवाली किताबों में पढ़ी है कि बुद्ध ईश्वरमें विश्वास नहीं करते थे। मेरी नम्र सम्मतिमें बुद्धकी शिक्षाओं की मुख्य बातके यह बिलकुल विरुद्ध है। मेरी नम्र सम्मतिमें यह भ्रान्ति इस बात से फैली कि बुद्धने अपने जमाने में ईश्वरके नामपर चलनेवाली सभी बुरी चीजोंको अस्वी- कार कर दिया था और यह उचित ही किया था । उन्होंने बेशक इस धारणाको अस्वीकार किया कि जिसे ईश्वर कहते हैं, उसमें द्वेष-भाव होता है, वह अपने कामोंके लिए पछताता है, वह पृथ्वीके राजाओंकी तरह लोभ और घूसका शिकार हो सकता है, या वह कुछ व्यक्तियोंपर विशेष कृपालु हो सकता है। उनकी सम्पूर्ण आत्मा इस विश्वासके विरुद्ध विद्रोह कर उठी कि जिसे ईश्वर कहते हैं, वह अपनी तुष्टिके लिए