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पत्र : सुरेन्द्रको

आपकी थैली मेरे लिए इस बातका प्रतीक है कि आप चरखेके सन्देशको पसन्द करते हैं। यदि आपकी सोसाइटीका नाम विवेकानन्द है तो आप भारतके करोड़ों क्षुधाग्रस्त लोगोंकी उपेक्षा करनेका साहस नहीं कर सकते, और यह विश्वास दिनों-दिन जड़ पकड़ता जा रहा है कि चरखेके बिना भारतके करोड़ों भूखे लोगोंकी सेवा कर सकना असम्भव है। इसलिए मुझे भारतीयोंसे, चाहे वे भारतमें रहते हों या बाहर, एक अपील करनेमें हिचक नहीं है, और वह यह कि वे अपने शरीरपर अपने तथा अपनी जन्मभूमिके करोड़ों क्षुधार्त्त लोगोंके बीच एक जीवन्त सम्बन्धका प्रतीक धारण करें।

अपनी दाहिनी ओर बैठी बहनोंसे तथा कोलम्बोमें, बल्कि लंका-भरमें रहनेवाले फैशनपसन्द भारतीयोंसे मैं कहना चाहता हूँ कि छः वर्षके सतत प्रयत्नोंके बाद अब यह सम्भव है कि आप जितना बारीकसे- बारीक कपड़ा चाहें, वह अब खद्दरके रूपमें भी मिल सकता है।

मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि विदेशी और मिलका बना कपड़ा पहननेकी जगह खद्दर पहनकर आपके लिए अपने देशके करोड़ों स्त्री-पुरुषोंकी जो थोड़ी-सी सेवा करना सम्भव है, उसका आप तिरस्कार नहीं करेंगे । मैं आपको इस अभिनन्दनपत्रके लिए एक बार फिर धन्यवाद देता हूँ ।

[ अंग्रेजीसे ]

सीलोन डेली न्यूज, १४-११-१९२७

विद गांधीजी इन सीलोन

१६८. पत्र : सुरेन्द्रको

रविवार [ १३ नवम्बर, १९२७ या उसके पश्चात् ]

[१]

चि० सुरेन्द्र,

तुम्हारा पत्र मिला है। देवदास रास्ते में बीमार पड़ गया इसलिए उसे बम्बईमें रुकना पड़ा। अब तो वह वर्धा पहुँच गया होगा । वहाँसे अवकाश पा सको तो जरूर वर्धा जाना और उसे जितनी शान्ति दे सको देना । उसके पास पहुँचनेकी तुम्हारी इच्छा स्वाभाविक है; मैं उसे रोकना नहीं चाहता।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (एस० एन० ९४११) की फोटो-नकलसे ।
 
  1. १. यह पत्र देवदासके ८ नवम्बर, १९२७ को अस्पतालसे छुट्टी पानेके बाद लिखा जान पड़ता है; देखिए " पत्र : सी० एफ० एन्ड्रयूजको ", ११-११-१९२७ । ३५-१६