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१५७. पत्र : प्रभाशंकर पट्टणीको

मंगलवार, कार्तिक सुदी १४ [८ नवम्बर, १९२७ ]

[१]

सुज्ञ भाईश्री,

यह पत्र अगनबोटमें लिख रहा हूँ। तुम्हारा लम्बा पत्र यथासमय मिल गया था ।

मुझे तो ऐसा लगा कि मेरे जैसे व्यक्तिको दिल्ली बुलानेकी कोई जरूरत नहीं थी, मेरी रायमें अन्य लोगोंको बुलाना भी ठीक नहीं था। क्योंकि वाइसराय दूसरोंका मत नहीं जानना चाहते थे बल्कि अपना मत ही जताना चाहते थे। इस विचित्र घटनासे मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। इस घटनासे देशकी स्थितिकी झलक मिलती है।

हिन्दू-मुस्लिम समस्याको सुलझानेके बारेमें तुम्हारा इलाज तो मर्जसे भी बदतर है। यदि प्रचलित सामान्य कानूनपर सही ढंग से अमल किया जाये तो बहुतसे झगड़े- टंटे आज ही मिट जायें । इस समस्यापर विस्तार से चर्चा हुई थी। मैं यह नहीं मानता कि फौजी कानून लागू करके दोनों लड़नेवाले फिरकोंमें एकता कायम की जा सकती है। यदि सरकारकी नीति दोनोंको लड़ाकर सत्ता बनाये रखनेकी न हो तो शायद हिन्दू-मुस्लिम झगड़े कुछ ही महीने चलें । पहले दोनों लड़ लें और फिर एक हो जायें किन्तु यह तो एक लम्बी बात है।

अपना स्वास्थ्य सुधारनेके लिए यदि तुम कहीं जाकर आराम करो तो अच्छा कामसे छुटकारा लेकर नहीं, चिन्तासे छुटकारा लेकर ।

मैं लंकामें १५ दिन रहूँगा। इसके बाद इस महीनेकी २६ तारीखको उड़ीसाके लिए रवाना हो जाऊँगा । वहाँसे क्रिसमसके समय मद्रास जाऊँगा और जनवरीमें आश्रम लौट आऊँगा । काठियावाड़ परिषदका[२] अधिवेशन १४-१५ जनवरीके आसपास होनेकी सम्भावना है।

मोहनदासके वन्देमातरम

गुजराती (सी० डब्ल्यू० ३२१८) की फोटो-नकलसे ।
सौजन्य : महेश पट्टणी
 
  1. १. इस दिन गांधीजी लंकाके रास्ते में एस० एस० कोलाबा जहाजपर थे।
  2. २. काठियावाद राजनीतिक परिषद |