१३५. पत्र : मीराबहनको
सोमवार [ ३१ अक्टूबर, १९२७]
यह पत्र चलती हुई और हिचकोले खाती हुई ट्रेनमें लिख रहा हूँ। यों आज मेरा मन कुछ भी लिखनेका नहीं है। अभी जब मैंने सोमवासरीय पत्र लिखना शुरू किया है, शामके ४ बज रहे हैं। मैं काफी नींद ले चुका हूँ और उतना ही समय दो मित्रोंकी बातें सुननेमें गया है।
मैं चाहता हूँ कि दुग्धालयों और पिंजरापोलोंमें तुमने जो कुछ देखा वह सब मुझे बताओ तथा दसके नाम भी। लेकिन शायद अब तुम्हारे पास इतना समय नहीं होगा कि तुम जो उत्तर लिखो वह मुझे दिल्लीमें मिल सके। क्योंकि यदि २ तारीखको वाइसरायके साथ मेरी बातचीत पहली ही भेंटमें खत्म हो गई तो उसी दिन मेरे साबरमतीके लिए रवाना होनेकी आशा है । देखें क्या होता है। इस भेंटसे कोई खास परिणाम निकलनेकी आशा करनेका कुछ आधार नहीं दिखाई देता, लेकिन जो पहल हुई है, उसे मैं इसी कारणसे रद नहीं करूंगा।
मैं यह आशा कर रहा हूँ कि वहाँ आऊँगा तो सख्त बीमार पड़े उन दोनों रोगियोंको चंगा देख सकूँगा। तुम दोनोंपर दबाव डालो कि वे मुख्य रूपसे दूध ही लें और अपना पेट साफ रखें ।
बापू
- अंग्रजी (सी० डब्ल्यू० ५२९० ) से ।
- सौजन्य : मीराबहन
१३६. पत्र : आश्रमकी बहनोंको
सुदी ६ [ ३१ अक्टूबर, १९२७]
एक पत्र स्याहीसे लिखनेका प्रयत्न किया। मगर ट्रेन इतनी तेजीसे और इतनी हिलती हुई चलती है कि स्याहीसे लिखा नहीं जा सकता और सोमवारका पत्र लिखना छोड़ा तो जा नहीं सकता।