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१२२. भाषण : कालीकटकी सार्वजनिक सभामें

२५ अक्टूबर, १९२७

मित्रो,

मैं आपको इन सब अभिनन्दनपत्रों, इन थैलियों, सूत और पुस्तकोंके उपहारों तथा घड़ीके लिए धन्यवाद देता हूँ। मैं इन चीजोंको आपकी स्वीकृतिके लिए पेश करूंगा और इन्हें नकदीमें बदल लूंगा। और यहाँ एक मित्रने मुझे अभी-अभी रवीन्द्र- नाथ ठाकुर लिखित 'साधना' की एक प्रति भेजी है। यह मित्र एक छात्र है और वह कहता है: "इस पुस्तकको अर्थात् ठाकुरकी 'साधना' को मेंट करनेमें मेरा एकमात्र उद्देश्य यह है कि आप उसे नीलाम कर दें और उससे जो धन मिले उसे छात्रों द्वारा दी गई थैलीमें जोड़ लें। "

मुझे बहुत साल पहलेका वह समय याद आता है जब मुझे अपने मित्र और भाई मौलाना शौकत अलीके साथ इसी सुन्दर समुद्र तटपर इसी प्रकारकी एक सभा बोलनेका सौभाग्य मिला था। तबसे आजतक देशमें कई परिवर्तन और गम्भीर घटनाएँ हो चुकी हैं। हम यह भी जानते हैं कि इस समय उत्तरमें क्षितिज बहुत काला दिखाई पड़ रहा है। लेकिन यदि मैं क्षितिजके कालेपनके बावजूद अपना यह विश्वास घोषित न करूँ कि मेरी नजरमें इस देश में हिन्दुओं और मुसलमानोंके लिए सगे भाइयोंकी तरह रहना जरूरी है और सम्भव है, तो मैं स्वयं अपने प्रति और देशके प्रति अपने कर्त्तव्यके पालनमें झूठा ठहरूँगा । यह तो केवल ईश्वर ही जानता है कि तब यह अत्यन्त वांछनीय एकता किस प्रकार आयेगी। लेकिन हम जानते हैं कि ईश्वर अकसर ही मनुष्यकी योजनाओंको गड़बड़ करके कुछ ऐसा घटित कर देता है जिसके लिए मनुष्य बिलकुल तैयार नहीं होता। और जिन लोगोंको अपने देशका कल्याण इष्ट है, उनसे मैं कहूँगा कि वे भी मेरी तरह ऐसा ही जीवन्त विश्वास रखें । और इसपर से मुझे उस विलक्षण पत्रका स्मरण हो आया है जो आज तीसरे पहर मेरे हाथोंमें दिया गया था। मैं अभीतक नहीं जान सका हूँ कि उस पत्रका लेखक कौन है । मैं स्वयं उस लम्बे पत्रको पूरा नहीं पढ़ सका, लेकिन मैंने एक मित्रसे कहा कि वे उसे पढ़ कर उसका सार मुझे बता दें । और उस पत्रका सार यह है है। पत्रलेखक कहता है, मुसलमानों और ईसाइयोंसे आपकी खातिर गायकी रक्षा करनेके लिए जो आप कहते हैं, वह बड़ा अच्छा है। " लेकिन वह आगे कहता है, "आप हिन्दुओंका क्या कर रहे हैं जो धर्मके पवित्र नामपर दिनों-दिन और सालों- साल निर्दोष पशुओं और पक्षियोंको मारते जा रहे हैं ? " यह फटकार बिलकुल ठीक है। मुझे पता नहीं कि भारतके इस भागमें ईश्वरके नामपर निर्दोष पशुओं और पक्षियोंकी बलि देनेकी यह बुरी प्रथा कितनी प्रचलित है। पत्रलेखकको इन चीजोंके बारेमें मेरी भावनाओंका कुछ पता नहीं है। जहाँ भी मैंने यह बुराई देखी है वहीं मैंने इसकी भर्त्सना करने में न अपनेको बख्शा है और न अपने सुननेवालोंको बख्शा