११३. वर्णधर्मपर बातचीत
२३ अक्टूबर, १९२७
कुछ नवयुवकोंने[२] वर्णधर्मपर बातचीत करनेके लिए गांधीजीसे भेंटका समय माँगा। उन्हें इस बातसे परेशानी थी कि जबतक ब्राह्मण ब्राह्मण है, तबतक वह अपनी श्रेष्ठता कैसे छोड़ सकता है ।
गांधीजीने अपनी बात समझाने के लिए एक उदाहरण देते हुए कहा :
सीता भी एक वेश्यासे श्रेष्ठ नहीं थीं। क्या आप सन्तुष्ट हैं ?
मित्रने कहा, "नहीं, मुझे तो इससे आघात पहुँचता है। " गांधीजीने कहा :
मैं सन्तुष्ट हूँ, क्योंकि सीतामें श्रेष्ठताकी कोई भावना नहीं थी । अगर उनमें अपनी पवित्रताका घमण्ड होता तो वे कहींकी न रहतीं। लेकिन उन्हें तो उसका भान तक नहीं था । वह पवित्र थीं क्योंकि उनके लिए इसके सिवा कुछ होना असम्भव था। क्या हिमालयको अपनी ऊँचाईका भान है ? तनिक भी नहीं। लेकिन यदि इसका भान हो तो वह टुकड़े-टुकड़े होकर गिर जाये । इसी प्रकार वर्ण भी, यदि वह श्रेष्ठताका समानार्थी और अहंकी अभिव्यक्ति बन जाये तो गलेमें पड़ी जंजीरसे बेहतर नहीं रह जायेगा। मैक्समूलरने हिन्दू धर्मकी संक्षेपमें यह व्याख्या की है : भारतने जीवनको केवल एक चीज माना है -- कर्त्तव्य जब कि औरोंने आनन्दो-
पभोग और कर्त्तव्यकी बात सोची है। " वर्ण तो बस उस कर्त्तव्यका द्योतक भाग है जो प्रत्येकको अपने पूर्वजोंसे प्राप्त हुआ है। पश्चिममें जब लोग जन-साधारणकी दशा सुधारनेकी बात करते हैं तो वे उनका जीवन स्तर उठानेकी ही बात करते हैं । भारतमें हमारे लिए जीवन-स्तर उठानेकी बात करना जरूरी नहीं है। जब वह स्तर हम सबके अन्दर ही है तो कोई बाहरी व्यक्ति उसे ऊपर कैसे उठा सकता है ? मनुष्य अपने कर्त्तव्यको पहचाने और उसे पूरा करे तथा ईश्वरके निकट पहुँचे । हम तो इसके अवसर ही बढ़ा सकते हैं। लेकिन आज आप पेड़को समूल उखाड़नेका असम्भव कार्य कर रहे हैं। मैं मानता हूँ कि कुछ शाखाएँ और पत्तियाँ सड़ी हुई हैं। आइए हम चाकू लें और इन रोगग्रस्त शाखाओंको काट डालें, लेकिन हमें जड़पर कुल्हाड़ा नहीं मारना चाहिए। जिस पेड़के नीचे आप रहे हैं और बड़े हुए हैं यदि उसे ही नष्ट कर देंगे तो आप खराब माली कहलाएँगे। पेड़में जो अनावश्यक बाढ़ है उसे आप काट फेंकें, भले ही अन्तमें जड़ों सहित बचा हुआ तना केवल ठूंठकी तरह दिखाई पड़ने