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पत्र: गंगाबहन वैद्यको

बहनोंकी प्रार्थना तुमने ही आरम्भ कराई थी। अब यदि तुम्हें ही उसमें रस न आये तब तो यह समुद्रमें आग लगने जैसी बात होगी; प्रार्थनामें उपस्थित रहना औरोंकी अपेक्षा तुम्हारा तो विशेष धर्म है।

वहाँ आपसमें जो खटपट हुई है उसके सम्बन्धमें मैं यह निर्णय नहीं करना चाहता कि किसका कितना दोष है; बल्कि मैं सबको उचित सलाह देना चाहता हूँ । फिर भी जबतक सबसे मिल नहीं लूंगा तबतक मैं अपनी कोई राय नहीं बनाऊँगा । ऐसा तो मुझे लगा ही नहीं कि दोष रमणीकलालका है। मैंने चि० राधाका पत्र इसलिए नहीं भेजा था कि किसी तरहकी जाँच पड़ताल की जाये बल्कि इसलिए भेजा था ताकि सब बहनें समस्याको समझ लें और एक दूसरेसे मिलकर अपने सन्देह दूर कर लें। उस पत्रको पढ़कर किसीको दुखी होनेका कोई कारण नहीं था। हमारे बारेमें कोई बुरी धारणा बनाये और हमें उसका पता चल जाये तो इससे हम खिन्न क्यों हों ? हमने सचमुच कुछ बुरा किया हो तो हमें खिन्न नहीं होना चाहिए; बल्कि ज्यों ही अपनी भूल मालूम पड़े त्यों ही उसे सुधारनेमें लग जाना चाहिए और भूल बतानेवाले व्यक्तिका अहसान मानना चाहिए । दोष न होते हुए भी यदि कोई दोषा- रोपण करे तो वह चाहे बूढ़ा हो या बालक, हम तो उसे ना-वाकिफकार ही मानें और माफ कर दें ।

यदि अन्य बहनोंको भी यह बताना चाहो तो बता देना ।
और अब तुम्हारे प्रश्नोंके बारेमें :
सोनेकी उपमाके बारेमें मैं कुछ नहीं कहना चाहता ।

बोरडी, बोरिवली और मातरमें तुम्हें शान्ति मिली थी क्योंकि वहाँ तुम मेह- मान थीं और सावधान थीं। वहाँका वातावरण तुम्हारी सृष्टि थी या फिर मेहमान होनेके कारण वहाँका वातावरण तुम्हारे अनुकूल बन जाता होगा । किन्तु आश्रमको तुम अपना घर मानती हो और उसे तुमने अपना घर बना भी लिया है। अतः वहाँ तुम मेहमान नहीं रहीं। आश्रममें तुम सब एक परिवारके रूपमें रह रही हो इसलिए तुम्हारी सच्ची परीक्षा यहीं होती है। वहाँ सभी तुम्हें डाँट-फटकार सकते हैं; तुम्हें यदि कोई कुछ न गिने तो भी तुम्हें निभा लेना चाहिए। यदि तुम निभा सको तो उससे तुम्हें शान्ति मिलेगी ।

जहाँ अशान्तिका कोई कारण ही न हो वहाँ मिलनेवाली शान्ति, शान्ति नहीं है। भला अफीमचीकी शान्ति किस कामकी ? जो अशान्तिमें से शान्ति प्राप्त कर सकेगी उसीकी जीत मानी जायेगी । जबतक तुम लोग आश्रममें शान्तिका उपभोग नहीं कर पाती तबतक तुम्हें आश्रमवासिनी नहीं कहा जा सकता ।

आश्रमवासिनी तो उसीको कहा जा सकता है जो सबके आश्रम छोड़ देनेपर भी स्वयं वहीं रहते हुए प्राण त्यागे। ऐसा किये बिना तो आश्रम खड़ा ही नहीं हो सकता ।

मैंने यह कभी नहीं माना कि आश्रम खड़ा हो चुका है। हाँ, उसे खड़ा करनेका प्रयत्न हम कर रहे हैं ।