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पत्र : किशोरलाल मशरूवालाको

तबतक हमारी दया हार्दिक नहीं कही जा सकती और इसलिए वह सच्ची भी नहीं मानी जा सकती; और इसके सिवा यदि दयाकी भावनाने हमारे हृदयमें घर कर लिया हो तो हमें चोरको अपने वश में कर लेना चाहिए, उससे मिलना-जुलना चाहिए, उसे सुधारनेका प्रयत्न करना चाहिए। एक बात और है, न्यायालय हमारी इस माँगको कि चोरपर दया की जाये, स्वीकार भी नहीं कर सकता। चोर स्वयं ऐसी माँग करे और सुधरनेका वचन दे तो न्यायालय उसपर विचार कर सकता है । या न्यायालय हमारी बातपर उस हालतमें ध्यान दे सकता है जब हम चोरको अपने घरमें रखने और इस तरह उसे समाजमें बाहर उपद्रव करनेसे रोकनेके लिए अपनी तैयारी दिखायें। यहाँ तो हम ऐसा कुछ भी करनेके लिए तैयार नहीं । इसलिए दयाकी माँग करनेकी बात मेरे मनको नहीं जँचती । दण्ड और दयाके बीचका कोई मार्ग अभी तक मुझे सूझा नहीं है। दया जहाँ दण्ड जितना प्रभाव न दिखा सकती हो वहाँ ऐसा समझना चाहिए कि वह या तो सच्ची नहीं है या पर्याप्त नहीं है । हिन्दु- मुसलमानोंके झगड़ोंसे मैंने जो अपना हाथ लगभग खींच लिया है, इसका कारण यही है कि मुझे अपनी दया अधूरी अथवा कृत्रिम मालूम होती है। कृत्रिमसे मेरा मतलब यह नहीं है कि वह झूठी है। मतलब सिर्फ इतना ही है कि वह बुद्धिके ही क्षेत्रमें है, उससे ज्यादा गहरी नहीं जाती। यदि वह बुद्धिसे गहरी उतरी होती तो मुझे दण्डकी जगह ले सकने योग्य कोई नया उपाय सूझ जाता। अभीतक तो ऐसा नहीं हो सका है। अपने हृदयमें वैसी तीव्र अहिंसाके[१] संवर्धनके लिए मैं बहुत प्रयत्न कर रहा हूँ । किन्तु मेरा प्रयत्न अभीतक सफल हुआ नहीं कहा जा सकता; हाँ, मैं हारा नहीं हूँ ।

तुम्हारी एक भूल सुधार दूं। मुझे लगता है कि यह भूल उतावलीमें हो गई है। तुम लिखते हो कि आजका कानून चोरीको अपराध नहीं मानता, चोरी करके पकड़े जानेको ही अपराध मानता है। बात ठीक ऐसी तो नहीं है। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि चोरी करके आदमी यदि पकड़ा न जाये तो वह दण्ड-मुक्त रहता है। किन्तु यह परिस्थिति तो आदर्श युगमें भी रहेगी। चोरी करते ही सजा मिल जाये यह तो केवल ईश्वरके किये ही हो सकता है। और यदि मनुष्य आस्तिक हो तो वह यही मानता है कि दोष-मात्रका दण्ड मनुष्यको भोगना पड़ता है। मैं मान लेता हूँ कि तुम्हारे कहनेका आशय इतना ही था ।

अब आश्रममें जो खलबली मची हुई है उसके विषयमें मुझे आश्चर्य नहीं होता, चोट भी नहीं पहुँचती। यह हृदय स्वच्छ करने और विभिन्न व्यक्तियोंमें शुद्ध मेलकी भावना स्थापित करनेका प्रयत्न है और जहाँ ऐसा होता है वहाँ ऐसा विस्फोट अनिवार्य है। इन घटनाओंसे मेरी यह प्रतीति और दृढ़ होती है कि हमने मंडलका निर्माण करके ठीक ही किया। इसी अनुभवमें से हम अपना काम करना सीखेंगे और अहिंसाके अनुकूल कोई नये सामाजिक नियम यदि हो सकते हैं तो उन नियमोंको ढूंढ़ना सीखेंगे। यदि हम लोगोंमें कोई सम्पूर्ण होता तो वह अभीतक एक नई स्मृति-

  1. १. मूलमें यह शब्द रेखांकित है ।