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९७. पत्र : करीम मुहम्मद मास्टरको

१७ अक्टुबर, १९२७

भाईश्री क० मु०,

आपने जो किताब भेजी, उसे 1मैं ध्यानपूर्वक पूरी पढ़ गया हूँ। उसकी उपयोगि- ताके विषयमें मुझे शंका है। आपने गहराईमें उतरकर नहीं लिखा है। आपने उसमें कुछ ऐसी बातोंको विश्वास-योग्य मानकर सम्मिलित कर लिया है जिन्हें सुप्रतिष्ठित उलेमाओंने भी स्वीकार्य नहीं माना है। मैं यहाँ उनके नाम नहीं गिनाऊँगा । आप उन बातोंको स्वयं मानते हों तो मैं आपको भी समझानेकी कोशिश नहीं करूंगा; किन्तु इस्लामका मर्म समझनेके लिए किसीको ऐसी पुस्तक पढ़नेकी सलाह मैं नहीं दे सकता ।

इसके सिवा, कुछ बातें तो ऐसी हैं जो मुझे इस कठिन समयमें खतरनाक मालूम होती हैं। पुस्तकका २६वाँ और २७वाँ पृष्ठ देखिये। उसमें आप कहते हैं कि जो लोग देवी-देवताओंको पूजते हैं उनका पाप तो खुदा कभी माफ नहीं करेगा; ऐसे पापियोंके लिए तो नरक ही एकमात्र योग्य स्थान है; ऐसे लोगोंका इबादत करना या न करना एक जैसा है। मुसलमानोंपर आपके इस कथनका क्या असर पड़ेगा ? जो व्यक्ति इसे पढ़ेगा और मानेगा वह देवी-देवताओंकी पूजा करनेवाले हिन्दुओंको एक क्षणके लिए भी कैसे सहन कर सकता है ? वह उन लोगोंके साथ मिलकर कैसे रह सकेगा ? और इन पृष्ठोंको पढ़नेवाले हिन्दुओंपर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा ?

मैंने उक्त आयतें पढ़ी हैं। मैं उनका वह अर्थ नहीं करता जो आप करते हैं। यदि उनका वही अर्थ हो जो आप करते हैं तो मैं उन्हें सहन तो कर लूंगा; किन्तु मुझे खेद जरूर होगा ।

आजकी परिस्थितिमें तो मैं यह चाहूँगा कि इस्लामके बारेमें केवल वे ही लोग लिखें जिनका ज्ञान विस्तृत हो और जो बहुत उदार हों।

मो० क० गांधी

[गुजरातीसे ]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई