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भाषण : त्रिचूरमें

लोकशिक्षा निदेशकसे, जिनके साथ मुझे दिल खोलकर बातें करनेका सुख प्राप्त हुआ, यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई कि इस राज्यके स्कूलोंमें पढ़नेवाले ५० प्रतिशत लड़के इसी अस्पृश्य वर्गके हैं।[१] मैं आपको इस सुधारके लिए धन्यवाद देता हूँ । अब मुझे मालूम हुआ है कि स्कूलोंमें पढ़नेवाले लड़कोंका ५० प्रतिशत नहीं, बल्कि दलित या अस्पृश्य वर्गके स्कूली उम्र के लड़कोंका ५० प्रतिशत पढ़ने जाता है। मैंने पहले जो बात कही थी वह जितनी सन्तोषजनक थी, यह बात उतनी तो नहीं, फिर भी सन्तोषजनक ही है। और मैं प्रकारान्तरसे कहना चाहूँगा कि यह देखते हुए कि इन लड़कों, और मैं आशा करता हूँ कि लड़कियोंके साथ भी, जिनकी इतने लम्बे समयतक उपेक्षा होती रही, विशेष व्यवहार किये जानेकी आवश्यकता है, और चूंकि वे राज्यके साधारण स्कूलोंमें पढ़ते हैं, जो कि ठीक ही है, इसलिए मेरी नम्र रायमें शिक्षाके पाठ्यक्रम में परिवर्तनको आवश्यकता है, और तथ्य तो यह है कि शिक्षामें आमूल परिवर्तनकी आवश्यकता वैसे भी है। इस दिशामें की गई प्रगतिके लिए मैं राज्यको और राज्यके लोगोंको भी बधाई देता हूँ, लेकिन मैं आपके सामने यह भी स्वीकार करूँगा कि वैसे यह प्रगति कितनी भी बड़ी क्यों न दिखाई पड़ती हो, लेकिन हिन्दू-धर्ममें जो बुराई फैल गई है, उसकी व्यापकताको देखते हुए यह प्रगति भी बहुत मामूली है। एक वर्ग-विशेषके मनुष्योंके प्रति, जो उतने ही अच्छे हैं जितने हम हैं, अस्पृश्यों-जैसा व्यवहार करके मनुष्य और ईश्वरके प्रति हमने जो पाप किये हैं, यदि उनके लिए हमें पर्याप्त प्रायश्चित्त करना है तो प्रगतिको रफ्तारको अबतककी अपेक्षा और तेज करना पड़ेगा। यंग मैन्स क्रिश्चियन एसोसिएशनके मन्त्रीने मुझे नायडी लोगोंकी दशाका एक सजीव किन्तु दुखद विवरण सुनाया । उस कष्टदायी बातचीतको विस्तारसे बतानेमें मैं आपका समय नहीं लूंगा। अपने ही बन्धुबान्धवोंपर हम हिन्दुओंने जो अन्यायपर अन्याय थोपे हैं, उन्हें शायद आप मुझसे बेहतर जानते हैं, इस अन्यायका थोड़ा-बहुत निराकरण तभी हो सकता है जब हम स्वयं अपनेको धिक्कारते हुए उठ खड़े हों और इस बुराईका नाम-निशान मिटा डालें। धीरज रखनेके पक्षमें और पूर्व- ग्रहोंके पक्षमें, भले ही वे पूर्वग्रह कितने ही पापपूर्ण क्यों न हों, हमेशा जो तर्क दिये जाते हैं, मैं उन्हें जानता हूँ; लेकिन भारतके एक छोरसे लेकर दूसरे छोरतक इन वर्गोंकी दशा देखनेके बाद मैं आपसे इतना ही कह सकता हूँ कि प्रगतिकी और प्रगतिकी शर्तोंके बारेमें दार्शनिकोंकी तरह बातें सुन-सुनकर हम थक चुके हैं। मेरे लिए तो अस्पृश्यताको समूल मिटा देनेका प्रश्न हिन्दू-धर्मकी सबसे बड़ी कसौटी है। इस समस्याके अच्छे-बुरे राजनीतिक और आर्थिक बड़े परिणाम हो सकते हैं, लेकिन मेरे लिए तो यह प्रमुख रूपसे एक धार्मिक प्रश्न है। यह सवर्ण हिन्दुओंके लिए आत्मशुद्धि करनेका प्रश्न है। इसलिए जब हम इन चीजोंको धीरे-धीरे करनेकी बात करते हैं तो मुझे लगता है कि हम इन लोगोंके प्रति अपना कर्त्तव्य नहीं कर रहे हैं। जबतक हममें से हरएक व्यक्ति इन लोगोंके निराशासे भरे घरोंमें आशा और सान्त्वनाकी किरण पहुँचाने वाला मिशनरी नहीं बन जाता तबतक मैं सन्तुष्ट नहीं होऊँगा । अतः आप समझ सकेंगे

  1. १. निदेशक राव साइब मथाईने यहाँ महात्माजी द्वारा दिये गये आँकड़ों में कुछ संशोधन किया ।