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नीलकी प्रतिमा-सम्बन्धी सत्याग्रह

स्वतन्त्रताके संग्राममें लगा हुआ है। मैसूर-जैसी रियासतमें न तो ये कठिनाइयाँ हैं और न यहाँ ऐसा कोई संग्राम ही है। मेरी नम्र सम्मतिमें, हिन्दू कानूनकी असंगतियों- को दूर करने आदिके काममें मैसूरको आगे बढ़कर ब्रिटिश भारतको रास्ता दिखाना चाहिए। ऐसे परिवर्तन करनेके लिहाजसे मैसूर राज्य काफी बड़ा और काफी महत्त्व- पूर्ण है। यहाँ उत्तरोत्तर एक संवैधानिक राजतन्त्र स्थापित हो गया है। इसकी अपनी एक विधान-सभा है, जो सामाजिक परिवर्तनोंका आरम्भ कर सके, इस लिहाजसे काफी प्रातिनिधिक है। हिन्दू कानूनमें जो परिवर्तन जरूरी हों, उनपर विचार करनेके लिए एक समिति नियुक्त करनेका प्रस्ताव विधान-सभाने पहले ही पास कर दिया है। और यदि एक ऐसी शक्तिशाली समिति नियुक्त कर दी जाये, जिसमें रूढ़िवादी और प्रगति- शील दोनों हिन्दू विचारधाराओंके यथेष्ट प्रतिनिधि हों, तो उसकी सलाहें निश्चय ही उपयोगी सिद्ध होंगी, और उनसे परिवर्तन करनेके लिए रास्ता तैयार होगा। ऐसी समितियोंके गठनके सम्बन्धमें मैसूर विधान-सभाके क्या नियम हैं, यह मैं नहीं जानता, मगर इसमें सन्देह नहीं है कि वे इतने लचीले हैं कि उनके अन्तर्गत ऐसी समितिमें मैसूरके बाहरके लोग भी शामिल किये जा सकते हैं। खैर कुछ भी हो, श्रीयुत भाष्यम अय्यंगारने यह दिखला दिया है कि कई बातोंमें हिन्दू कानूनको बदलना परमावश्यक है। इस सुधारको, जिसमें पहले ही काफी देर हो चुकी है, शुरू करने में मैसूरसे अधिक उपयुक्त दूसरा कोई राज्य नहीं है ।

[अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १३-१०-१९२७

८६. नीलकी प्रतिमा-सम्बन्धी सत्याग्रह

[१]

इस आन्दोलनसे सम्बन्धित स्वयंसेवकोंने मुझको जो वचन दिया था, उसके मुताबिक मैंने जो बातें जाननी चाही थीं, उनसे सम्बद्ध कागज-पत्र उन्होंने मुझे भेज दिये हैं। उनसे यह मालूम होता है कि जब मुझे ये कागज पत्र भेजे गये तब उस आन्दोलनको चलते हुए कोई डेढ़ महीना हुआ था, और इस अवधिमें ३० स्वयं- सेवकोंने अपनेको गिरफ्तार कराया है। इनमें से २९ हिन्दू, एक मुसलमान, एक पैंतीस वर्षीया महिला और एक उनकी ९ सालकी लड़की है। इन ३० जनोंमें से दो ने माफी माँग ली, और वे छूट गये । यह माफी माँगना यदि छूतके रोग-सा साबित न हो तो कुछके माफी माँग लेनेसे कोई फर्क नहीं पड़ता। हरएक संघर्ष में कुछ ऐसे लोग होते ही हैं। जो लोग जेल गये हैं, वे कोई प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति नहीं हैं। सत्याग्रहके संग्राममें यह बात हानिकर नहीं, बल्कि लाभदायक ही है। सत्याग्रहमें सत्यसे मिलने- वाली प्रतिष्ठाके सिवा दूसरी किसी प्रतिष्ठाकी आवश्यकता नहीं है और स्वेच्छासे कष्ट सहनेके बलके सिवा दूसरे किसी बलकी आवश्यकता नहीं है। यह बल अपने उद्देश्यके प्रति अटल विश्वाससे और पूर्ण अहिंसावृत्तिसे मिलता है।

  1. १. देखिए "नीलकी प्रतिमा और अहिंसा , २९-९-१९२७ भी। ३५-९