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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

महाराजा मिले हैं और वैसे ही ईमानदार और प्रगतिशील विचारोंवाले दीवान भी। अत: अगर आज हम ये इष्ट सुधार नहीं कर सकते तो फिर कभी नहीं कर सकेंगे ।

क्या आप इस बातकी चर्चा 'यंग इंडिया' में कर सकते हैं ?

इस पत्रको ऐसा महत्त्वपूर्ण स्थान देनेका यह मतलब नहीं लगाना चाहिए कि मै लेखकके सुझाये हरएक सुधारका समर्थन ही करता हूँ। बेशक इनमें से कुछपर तो तुरन्त ही ध्यान देनेकी जरूरत है। इसमें भी मुझे कोई शक नहीं है कि जो लोग हिन्दू-समाजको उसकी असंगतियोंसे मुक्त करना चाहते हैं, उन्हें इन सबपर गौर करना चाहिए ।

अंग्रेजोंके जमानेसे पहले यहाँ करोड़ों लोगोंके जीवनका नियमन करनेवाले एक निश्चित हिन्दू कानून-जैसी कोई चीज नहीं थी। स्मृतियोंके नामसे प्रसिद्ध नियमावलि आचरण सम्बन्धी कठोर नियमोंकी संहिता नहीं थी, बल्कि पथप्रदर्शक मात्र थी। इन नियमोंको कानूनकी वह वैधता नहीं प्राप्त थी, जिससे आजके वकील परिचित हैं । स्मृतियोंके निषेधोंका पालन कानूनकी अपेक्षा सामाजिक दण्डोंके भयसे अधिक होता था। जैसा कि स्मृतियोंमें मिलनेवाले परस्पर विरोधी श्लोकोंसे पता चलता है, वे भी हमारी तरह ही लगातार क्रमिक विकासको प्रक्रियाओंसे गुजर रही थीं और जैसे-जैसे समाजविज्ञानके नये सिद्धान्त सामने आते जाते थे, उनमें भी अनुकूल परिवर्तन होते रहते थे। बुद्धिमान राजाओंको नई परिस्थितिके अनुसार उनकी नई व्याख्या करानेकी स्वतन्त्रता थी । हिन्दू-धर्म या हिन्दू-शास्त्र कभी अटल और अपरि- वर्तनीय नहीं थे, जैसा कि आज उन्हें बतलाया जा रहा है। बेशक उस समय ऐसे राजा और मन्त्री होते थे, जिनमें समाजकी श्रद्धा और निष्ठा पाने योग्य बुद्धिमत्ता और सत्ता होती थी। मगर अब तो यह सोचनेका चलन हो गया है कि स्मृतियों और शास्त्रोंके नामसे चलनेवाली सभी चीजें सर्वथा अपरिवर्तनीय हैं। जिन इलोकों पर अमल करना हमारे लिए असम्भव होता है या जो हमारी नैतिक प्रवृत्तिके विरुद्ध मालूम होते हैं, उनकी हम मजेमें उपेक्षा कर देते हैं। अगर हिन्दू समाजको सारे संसारके साथ-साथ उन्नति करनी है तो यह अत्यन्त असन्तोषजनक स्थिति एक- न-एक दिन और किसी-न-किसी प्रकार बदलनी ही होगी । अंग्रेज शासकोंका अपना दूसरा धर्म और दूसरा आदर्श है, जिसके कारण वे ये परिवर्तन नहीं कर सकते । उनका आदर्श है अपनी व्यापारिक प्रभुताको बनाये रखना और इस आदर्शकी प्राप्ति के लिए सभी नैतिक या अन्य आवश्यकताओंको तिलांजलि दे देना। इसलिए जबतक हिन्दू लोकमत स्पष्ट रूपसे इसकी मांग नहीं करता यह माँग उनके आदर्शको बिना कोई हानि पहुँचाये की जा सकती है -- तबतक वे हमारे रीति-रिवाजों और तथाकथित कानूनोंमें कोई बड़ा परिवर्तन नहीं करेंगे, और न उसका समर्थन करेंगे । और ब्रिटिश-भारत-जैसे विशाल क्षेत्रमें, जहाँ भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ और कानून प्रचलित हैं, हिन्दू लोकमतको मिलते-जुलते मुद्दोंपर एकमत करना कठिन है। और जैसा कुछ लोकमत यहाँ है, उसका ध्यान स्वभावतः और आवश्यक रूपसे राजनीतिक