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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गुजरातमें मदद लेनेवाले और बाँटनेवाले याद रखें कि जो दान मिला है, उसमें से कुछके पीछे कितना त्याग रहा है। जब स्वामी श्रद्धानन्दजी गुरुकुलके कुलपति थे, तब दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहकी लड़ाई के समय गुरुकुलमें उन्होंने त्यागकी जो प्रथा सर्वप्रथम डाली थी, उसकी याद मुझे गुरुकुलके लड़के-लड़कियोंके आजके त्यागसे आती है। इसलिए गुरुकुलकी परम्परामें पले हुए लड़के-लड़कियोंसे खास मौकोंपर इस तरहकी कुरबानीकी आशा तो हमेशा रखी ही जायेगी ।

गोरक्षा सम्बन्धी पुरस्कार-निबन्ध

पाठकोंको याद होगा कि २९ अक्टूबर, १९२५ के 'यंग इंडिया' में मैंने सूचना निकाली थी कि श्रीयुत रेवाशंकर जगजीवन झवेरीकी ओरसे गोरक्षापर हिन्दी, संस्कृत या अंग्रेजी में सबसे अच्छे लेखके लिए १००० रुपयेका पुरस्कार दिया जायेगा। इसी प्रकार १३ दिसम्बर, १९२५ के 'नवजीवन' में भी श्रीयुत तुलसीदास खीमजीकी ओरसे इसी विषयपर गुजराती में सर्वोत्तम लेखके लिए २५१ रुपयोंके पुरस्कारकी विज्ञप्ति निकली थी। शर्ते निम्नलिखित थी :

निबन्ध ३१ मार्च, १९२६ (बादमें समय ३१ मईतक बढ़ा दिया गयाथा) तक मन्त्री, अ० भा० गोरक्षा मंडलके पास सत्याग्रहाश्रम, साबरमतीमें पहुँच जाना चाहिए। इसमें गोरक्षाको प्रवृत्तिके उद्भव, गो-रक्षाके अर्थ और फलितार्थपर विचार होना चाहिए और समर्थनमें प्रमाण उद्धृत करने चाहिए। इसमें शास्त्रोंकी विवेचना होनी चाहिए और इसका पता लगाया जाना चाहिए कि क्या शास्त्रों में गोरक्षक संस्थाओं के लिए दुग्धालय और चर्मालय चलाने की मुमानियत है। इसमें हिन्दुस्तान में गो रक्षाका इतिहास और समय- समयपर उसके लिए अपनाये गये तरीके दिये जाने चाहिए, हिन्दुस्तानकी पशु-संख्या देनी चाहिए और चरागाहोंके मसलेपर और हिन्दुस्तान में चरागाहों के प्रश्नपर सरकारको नीतिका क्या परिणाम होता है उसपर विचार होना चाहिए और गो-रक्षाके उपाय सुझाये जाने चाहिए।

आचार्य आनन्दशंकर बापूभाई ध्रुव, श्रीयुत चिन्तामणि विनायक वैद्य और श्रीयुत वालजी गोविन्दजी देसाई परीक्षक नियत हुए थे। मुझे यह प्रकाशित करते हुए खेद होता है कि सभी परीक्षकोंका स्वतन्त्र रूपसे अलग-अलग मत है कि कोई निबन्ध शर्तोंके मुताबिक पुरस्कारके योग्य नहीं है। परीक्षाफल प्रकाशित करने में कई कारणोंसे देर होनेका मुझे खेद है, मगर उन कारणोंको बतानेकी कोई जरूरत नहीं है। मगर जिन लोगोंने इस विषयका अध्ययन किया है, और इस महत्त्वपूर्ण सवालमें जिन्हें दिलचस्पी हो, उनसे मैं पुन: ऐसे लेख लिखनेका प्रयत्न करनेको कहूँगा जो इस विषय- के महत्त्वके अनुरूप हों। जिन्होंने पुरस्कारके लिए लेख लिखे थे, वे फिर कोशिश करें। परीक्षक मुझे बतलाते हैं कि कुछ लेखकोंके कामसे परिश्रम झलकता है मगर उन्होंने भी विषयके अनुरूप परिश्रमपूर्वक खोज नहीं की है, और पुरस्कारकी शर्तोंका पालन तो शायद ही किसीने किया हो ।