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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हम अपने चारों ओर देख रहे हैं, सहन करना चाहिए या उसके प्रति नरम रुख रखना चाहिए। वर्णाश्रम और जाति-प्रथामें कहीं भी कोई समानता नहीं है। आप चाहें तो कह सकते हैं कि जातियाँ हिन्दू-धर्मपर एक बोझके समान हैं और अस्पृश्यता, जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ, वर्णाश्रम धर्मकी विकृति है। यह वर्णाश्रम धर्मके पौधेकी वृद्धिको रोकनेवाले घास-पातके समान है, जिसे जड़मूलसे उखाड़ फेंकना चाहिए उसी तरह जिस तरह हम गेहूँके खेतमें उगे मोथोंको उखाड़ फेंकते हैं। वर्णकी इस कल्पनामें ऊँच-नीचके भेदभावके लिए कोई स्थान नहीं है। यदि हिन्दू धर्मकी मेरी यह व्याख्या सही हो तो मैं कहूँगा कि उसमें प्राणि-मात्र एक समान हैं। इसलिए जब कोई ब्राह्मण कहता है कि 'मैं अन्य तीन वर्णोंसे श्रेष्ठ हूँ' तो उसके अन्दरसे उसका झूठा अहंकार बोलता है। प्राचीन कालके ब्राह्मण ऐसा नहीं कहते थे। लोग उनपर श्रद्धा इसलिए नहीं रखते थे कि वे अपने-आपको श्रेष्ठ मानते थे, बल्कि इसलिए रखते थे कि वे बिना किसी प्रतिदानकी अपेक्षाके सेवा करना अपना अधिकार मानते थे। जो पुरोहित आज खामखाह ब्राह्मणोंके कामके अधिकारको अपनाये हुए हैं और धर्मके स्वरूपको विकृत कर रहे हैं वे हिन्दू-धर्म या ब्राह्मणवादके संरक्षक नहीं हैं। जाने- अनजाने वे उसी पेड़की जड़पर कुठाराघात कर रहे हैं जिसपर वे बैठे हुए हैं और जब वे आपसे कहते हैं कि शास्त्रों में अस्पृश्यताका विधान है और यदि अमुक व्यक्ति आपसे अमुक दूरीसे अधिक निकट आ जायेगा तो आप अपवित्र हो जायेंगे तो मैं निःसंकोच कहूँगा कि वे अपने धर्मको झुठला रहे हैं और हिन्दू धर्मकी गलत व्याख्या कर रहे हैं। अब आप शायद समझ जायेंगे कि यहाँ मेरी बातोंको सुन रहे आप हिन्दुओंके लिए यह बात क्यों नितान्त आवश्यक है कि आप आलस्य त्याग कर जागें और इस अभिशापसे अपने-आपको मुक्त करें। आपको इस सुधारमें सबसे आगे रहकर गर्वका अनुभव करना चाहिए, क्योंकि आप एक प्राचीन हिन्दू राज्यकी प्रजा हैं। आपके आस-पासके वातावरणको जहाँतक मैं समझ पाया हूँ, उसे देखते यदि आप ईमान- दारीके साथ और पूरी शक्तिसे इस सुधारको सम्पन्न करानेका काम अपने हाथमें लेना चाहते हैं तो यह अवसर बहुत उपयुक्त है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २०-१०-१९२७