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भाषण : त्रिवेन्द्रम् में

हम डूबे हुए हैं, उसमें से ९० प्रतिशतकी कोई जरूरत नहीं रह जायेगी। तब आप यह कह सकेंगे कि आज हम जिस वर्ण-धर्मका पालन कर रहे हैं, वह उस वर्ण- धर्मका उपहास-मात्र है जिसकी चर्चा मैंने आपसे की है। और वह सचमुच इस सच्चे वर्ण-धर्मका उपहास ही है, लेकिन जिस प्रकार हम सिर्फ इस कारणसे कि असत्य सत्यका जामा पहन कर हमें छलता रहता है, सत्यसे घृणा नहीं करते हैं, बल्कि बुद्धिपूर्वक छानबीन करके असत्यको सत्यसे अलग कर देते हैं और सत्यपर आरूढ़ रहते हैं, उसी प्रकार हम वर्ण-धर्मकी विकृतियोंको नष्ट करके हिन्दू-समाजको उसकी आजकी अधोगतिकी स्थितिसे उबार सकते हैं ।

आश्रम तो अभी मैंने आपको जो कुछ बताया है, उसका एक सहज अंग है, और आज यदि वर्ण-धर्म विकृत हो गया है तो आश्रम-धर्म तो बिलकुल लुप्त ही हो गया है। आश्रमका मतलब मनुष्यके जीवनकी चार अवस्थाएँ हैं; और मुझे कितनी खुशी हो, यदि आप विद्यार्थी, आर्ट्स, साइंस और लॉ कालेजोंके विद्यार्थी लोग, जिन्होंने मुझे आज ये थैलियाँ भेंट की हैं, मुझको आश्वस्त कर सकें कि आप लोग इस प्रथम आश्रमके नियमोंके अनुसार रह रहे हैं और आप लोग मनसा, वाचा, कर्मणा ब्रह्मचारी हैं। ब्रह्मचर्याश्रमका निर्देश है कि जो लोग कमसे-कम २५ वर्षतक ब्रह्मचारीका जीवन व्यतीत कर चुके हों, वे ही दूसरे आश्रम, अर्थात् गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेके अधिकारी हैं। और चूंकि हिन्दू-धर्मके पूरे दर्शनका उद्देश्य मनुष्यको, जैसा वह है उससे अच्छा बनाना और उसे स्रष्टाके निकटतर लाना है, इसलिए ऋषियोंने गृहस्थाश्रमकी भी एक सीमा बाँध दी और हमारे लिए वानप्रस्थी और संन्यस्त जीवन जीनेका विधान किया। लेकिन आज यदि ढूंढ़ने निकलें तो सारे भारतमें आपको कहीं भी कोई सच्चा ब्रह्मचारी, सच्चा गृहस्थ, सच्चा वानप्रस्थी और सच्चा संन्यासी नहीं मिलेगा । हम चाहें तो अपनी बुद्धिके अहंकारमें जीवनकी इस योजनापर हँस सकते हैं, लेकिन मुझे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि हिन्दू-धर्मकी महान सफलताका रहस्य इसीमें है। मिस्र, असीरिया और बैबिलोनकी सभ्यताएँ मिट गई, लेकिन हिन्दू संस्कृति आज भी जीवित है। ईसाई धर्म तो मात्र दो हजार वर्ष पुराना है। इस्लाम अभी कलकी चीज है। ये दोनों धर्म यद्यपि महान हैं, किन्तु मेरी तुच्छ सम्मतिमें अभी ये विकसित ही हो रहे हैं। ईसाई यूरोप सच्चे अर्थोंमें ईसाई है ही नहीं, बल्कि वह तो अभी भी ईसाइयतके महान सत्यको पानेके लिए अँधेरेमें टटोल रहा है और यही हाल इस्लामका भी है। आज इन तीन महान धर्मोके बीच एक स्पर्धा चल रही है, जो कल्याणकर भी है और एक तरहसे अत्यन्त अकल्याणकर तथा विकृत भी । जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, मेरी यह प्रतीति बढ़ती ही जाती है कि वर्ण-धर्म मनुष्यके अस्तित्वका धर्म है और इसलिए यह ईसाई धर्म और इस्लामके लिए भी उतना ही जरूरी है, जितना हिन्दू धर्मके लिए रहा है और जिसके कारण ही हिन्दू वर्म बच सका है। इसलिए दक्षिणके कुछ हिन्दू जो यह कहने लगे हैं कि वर्णाश्रम हिन्दूधर्मका अभिशाप है, उसे मैं नहीं मानता। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि आपको या मुझे क्षण-भरको भी वर्णाश्रमकी उस घोर विकृतिको, जिसे आज