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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लेकिन, यह सब कहनेमें मेरा उद्देश्य किसीके उत्साहको मन्द करना नहीं है। इस समस्यापर मैं इतने विस्तारसे सिर्फ इसलिए बोल रहा हूँ कि मैं चाहता हूँ कि आप ऐसे ढंगसे काम करें कि जिससे जल्दीसे-जल्दी इसका हल निकल सके। इसलिए मेरा विनम्र सुझाव है कि आपमें से जिन लोगोंको सार्वजनिक जीवनका अनुभव है, वे इस आन्दोलनको अपने हाथमें लेकर इसे अपना काम बना लें और उन नौजवानोंकी शक्ति और इच्छाको सही दिशा दें जो इस समस्यामें दिलचस्पी तो रखते हैं, किन्तु यह नहीं जानते कि इसे कैसे हल किया जाये । और मेरा यह सुझाव भी है कि आप अधिकारियोंसे सम्पर्क स्थापित करें और जबतक यह सुधार सम्पन्न नहीं हो जाता तबतक उन्हें चैन न लेने दें, क्योंकि मैं आपको इतना बता सकता हूँ कि केवल महारानी साहिबा ही नहीं, दीवान साहब भी इस सुधारके लिए बहुत उत्सुक हैं। लेकिन, चूंकि दीवान साहब अन्य धर्मावलम्बी हैं, इसलिए मैं और आप उनकी कठि- नाई समझ सकते हैं। मेरे विचारसे तो जहाँतक सरकारका सम्बन्ध है, वह सुधार के पक्षमें है। लेकिन पहल सरकारको नहीं, आपको ही करनी होगी। इस महत्त्वपूर्ण सवालकी चर्चा बहुत विस्तारसे करनेके लिए आप मुझे माफ करेंगे । मेरे सामने कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था, क्योंकि मेरे पास इतना समय नहीं है कि कुछ-एक नेताओंको बुलाकर उनसे इस समस्याके सभी नुक्तोंपर बातचीत कर लूँ । इसलिए, मैंने सोचा कि इतने बड़े श्रोता-समुदायके सामने अस्पृश्यताके सम्बन्धमें दिये गये भाषणके बोझिल हो जानेका आप बुरा न मानेंगे ।

आज सुबह इस प्रश्नसे उठनेवाला एक सहज प्रश्न मुझसे पूछा गया । वह यह था कि वर्णाश्रम धर्मका अस्पृश्यतापर क्या प्रभाव पड़ता है। इसका मतलब यह हुआ कि वर्णाश्रम धर्मके बारेमें मेरा क्या विचार है, इसपर दो शब्द कहूँ । जहाँतक मुझे हिन्दू धर्मकी कोई जानकारी है, मैं तो समझता हूँ कि वर्ण शब्दका अर्थ अत्यन्त सीधा-सादा है। इसका अर्थ केवल इतना ही है कि हम सब अपने पूर्वजोंके पैतृक और पारम्परिक पेशेको, बशर्ते कि वह नीति-धर्मके मौलिक सिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं है, अपनायें, और वह भी सिर्फ जीविकोपार्जनके लिए। यदि हम प्रत्येक धर्ममें की गई मनुष्यकी परिभाषाको स्वीकार करें तो मैं वर्णधर्मको हमारे अस्तित्वका अनिवार्य नियम मानता हूँ। ईश्वरकी समस्त चेतना सृष्टिमें केवल मनुष्य ही ऐसा है जिसका सृजन इसलिए किया गया है कि वह अपने स्रष्टाको जाने। इसलिए मनुष्यके जीवनका उद्देश्य प्रति- दिन अपनी भौतिक उपलब्धिकी वृद्धि करना और धन-सम्पत्ति अर्जित करना नहीं है, बल्कि उसका प्रमुख कर्त्तव्य दिन-प्रतिदिन अपने स्रष्टाके निकट पहुँचना है; और प्राचीन ऋषि-मुनियोंने इसी परिभाषामें से हमारे अस्तित्वके इस नियमका अन्वेषण किया। आप समझ सकते हैं कि यदि हम सभी वर्ण-धर्मका पालन करें तो स्वभावतः अपनी भौतिक महत्वाकांक्षाको सीमित रखेंगे, और इस तरह शक्तिकी जो बचत होगी, उसका उपयोग हम उस विस्तृत क्षेत्रका अन्वेषण करनेमें लगा सकते हैं जिससे और जिसके द्वारा हम ईश्वरको जान सकते हैं। यदि हम इस नियमको मान लें तो आप सहज ही देखेंगे कि आज दुनियामें जितना कार्य व्यापार चल रहा है और जिसमें