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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। ऐसे मामलोंमें वे अपनेको एक सुधारक भी बताती हैं, और मेरा खयाल है कि आपको यह बताकर कि वे इस बुराईको जल्दीसे-जल्दी दूर करानेके लिए उत्सुक हैं, मैं उनका विश्वास भंग नहीं कर रहा हूँ । लेकिन तब यह भी सच है कि सुधारके मामलोंमें सरकार नेतृत्व नहीं कर सकती । सरकार तो स्वभावतः वह जिन लोगोंपर शासन करती है, उनकी स्पष्ट इच्छाकी व्याख्या करनेवाली और उसे अंजाम देनेवाली संस्था होती है। और जिस सुधारको जनता ग्रहण न कर सके उसे जबरन थोपना तो अत्यन्त निरंकुश सरकार भी बहुत कठिन पायेगी। इसलिए यदि मैं बावणकोर राज्यकी प्रजा होता तो इतना जानकर ही पूरी तरह सन्तुष्ट हो जाता कि हमारी सरकार इस सुधारको जनता जितनी तेजीसे ग्रहण कर सकती है उतनी तेजीसे लागू करनेको इच्छुक है। लेकिन, इस सम्बन्धमें सन्तुष्ट होकर मैं तबतक एक क्षणको मी विश्राम नहीं करता जबतक कि मैं इस सुधारके सन्देशको गाँव-गाँव और व्यक्ति-व्यक्तितक नहीं पहुँचा देता । एक सुव्यवस्थित और सतत आन्दोलन स्वस्थ प्रगतिका स्रोत है, और इसलिए यदि आपकी जगह मैं होता तो मैं सरकारको तबतक चैन नहीं लेने देता जबतक कि यह सुधार पूरी तरह लागू न कर दिया जाता। लेकिन, सरकारको चैन न लेने देनेका मतलब उसे परेशान करना नहीं है। समझदार सरकार तो ऐसे आन्दोलनोंका स्वागत करती है। जिस सुधारको वह स्वयं चाहती है, उसे लागू करनेके लिए ऐसे आन्दोलनोंसे प्राप्त होनेवाले समर्थन और प्रोत्साहनकी अपेक्षा रखती है। मैं जानता हूँ कि जब पिछली बार मैं यहाँ आया था तब मुझे बताया गया था कि सभी सवर्ण हिन्दू अस्पृश्यताको हर रूपमें समाप्त कर देनेवाले इस सुधारके लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। लेकिन, मुझे लगता है कि सवर्ण हिन्दू बस इच्छा करके ही रह गये हैं। उन्होंने अपनी इच्छाको कोई ठोस रूप नहीं दिया है और मेरा विश्वास है कि इस राज्यके प्रत्येक हिन्दूका यह कर्त्तव्य है कि वह स्वयं अपने कर्त्तव्यके प्रति सजग हो जाये और अपने आलसी भाइयोंको भी सजग कर दे। और यदि सवर्ण हिन्दू एक स्वरसे अपनी इच्छा व्यक्त करें तो अस्पृश्यताकी इस बुराईके दूर हो जानेमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है। इसलिए अपने आलस्य और ढिलाईके लिए सरकारको दोषी ठहराना गलत होगा ।

लेकिन सुधारक तो हर समाज और हर देशमें उँगलियोंपर गिने जाने लायक ही होते हैं, और मैं जानता हूँ कि ऐसे सभी सुधारोंका भार अन्ततः उन चन्द निष्ठा- वान लोगोंके ही सिर पड़ता है। तब फिर इस दीर्घकालसे चली आ रही बुराईके सम्बन्धमें सुधारकोंको क्या करना चाहिए? इस सवालका जवाब ढूंढ़ना जरूरी है। दुनियाके सुधारकोंने, अब मैं जो दो तरीके बताने जा रहा हूँ, उनमें से एक या दूसरेका सहारा लिया है। उनमें से अधिकांशने अव्यवस्थित आन्दोलन करके और हिंसाके द्वारा बुराइयोंकी ओर लोगोंका ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने सरकारको परेशानी में डालनेवाले, जनताको परेशान करनेवाले और नागरिकोंके जीवनको उलट-पलट देने- वाले आन्दोलनका सहारा लिया है। दूसरे किस्मके सुधारक, जिन्हें मैं अहिंसावादी सुधा- रक कहूँगा, विनम्र ढंगके आन्दोलनका सहारा लेते हैं। ये मनसा अथवा कर्मणा हिंसा