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७१. पत्र: मीराबहनको

८ अक्टूबर, १९२७

चि० मीरा,

मैं तुम्हें हररोज पत्र नहीं लिखूंगा, क्योंकि मेरा खयाल है कि तुम्हें किसी ठण्डक पहुँचानेवाले मरहमकी जरूरत नहीं है। इस वक्ततक घाव[१] जरूर अच्छा हो गया होगा। आश्रमसे आये हुए तुम्हारे पत्रसे मुझे तसल्ली हो गई है।

हाँ, तुम गोशालाका या दूसरा जो भी काम पसन्द हो, कर सकती हो । तुम्हारी खुराकका क्या हाल है ? छोटेलालकी ओरसे जो सन्देश भेजा है, उसे मैं स्वीकार नहीं कर रहा हूँ। उसे खुद लिखना चाहिए और विस्तारसे ।

सप्रेम,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२८५) से ।
सौजन्य : मीराबहन

७२. भाषण : नागरकोइलमें

[२]

८ अक्टूबर, १९२७

हिन्दुस्तानके इस स्वर्ग-सुन्दर हिस्सेमें दुबारा आनेसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है, मगर इस बातसे कि इस सुन्दर प्रदेशमें अस्पृश्यताका जितना बोलबाला है उतना हिन्दुस्तानमें और कहीं नहीं है, मुझे जो दुःख होता है, उसे भी मैं आपसे नहीं छिपा सकता। हिन्दू होनेके नाते यह देखकर मुझे बड़ी जलालत मालूम होती है कि इस प्रगतिशील हिन्दू राज्य में अस्पृश्यता अपने सबसे वीभत्स रूपमें व्याप्त है। कुछ लोगोंको देखने और कुछको पास फटकने देनेतकमें छूत मानी जाती है। मैं अपनी जिम्मेवारीको अच्छी तरह समझते हुए कहता हूँ कि यह अस्पृश्यता हिन्दू धर्मके लिए एक ऐसा अभिशाप है, जो उसके जीवन तत्त्वको खाये जा रहा है और मुझे कभी-कभी लगता है कि अगर हम चेत न गये और हमने अस्पृश्यताको मिटा न दिया तो हिन्दू- धर्मका अस्तित्व ही खतरेमें पड़ जायेगा। यह तो मेरी समझके बाहरकी बात है कि तर्कके इस युगमें, संसार परिभ्रमणके इस युगमें, भिन्न-भिन्न धर्मोका तुलनात्मक अध्ययन करनेके इस जमानेमें ऐसे लोग, और कभी-कभी तो ऐसे पढ़े-लिखे लोग भी मिलें

  1. १. मूलमें यहाँ “ वर्ल्ड" ( संसार) शब्द है।
  2. २. " मैसेज टू त्रावणकोर " ( त्रावणकोरको सन्देश ) शीर्षकके अन्तर्गत प्रकाशित ।